Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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है यहां मुक्तजीवोंकी मोडारहित गति कही गई है। अन्यथा यहांपर संसारी जीवोंका प्रकरण चल रहा
था इसलिए अनुवृत्तिके बलसे ही संसारी' सिद्ध था पुनः संसारीग्रहण व्यर्थ ही था। शंकाॐ दूसरी श्रेणिमें चला जाना विग्रह शब्दका अर्थ है और उसका अभाव श्रोणिके अनुकूल गमन करनेसे
सिद्ध है। मुक्तजीव सीधा ऊपर जानेसे उसकी गति श्रेणिके अनुकूल ही है इसरीतिसे मुक्तजीवकी मोडा4 रहित गति 'अनुश्रेणि गतिः' इसी सूत्रसे सिद्ध थी फिर 'अविग्रहा जीवस्य' इस सूत्रका निर्माण निष्प्र
योजन है ? सो ठीक नहीं । जीव और पुद्गलोंकी कहींपर ओणके प्रतिकूल भी गति होती है इस प्रयो- हूँ है जनको सूचित करनेकेलिए इस सूत्रका निर्माण किया गया है। यदि यहाँपर यह शंका की जाय कि
वहांपर काल और देशके नियमका ग्रहण किया गया है और उस काल नियममें मुक्त जीवोंके । * ऊर्ध्व गमन करते समय श्रेणिके अनुकूल गति बतलाई गई है इसलिए मुक्तजीवोंकी मोडारहित
गति अनुश्रेणि गतिः' इस सूत्रों सिद्ध रहनेपर पुनः इस सूत्रका प्रतिपादन निरर्थक ही है ? सो भी 18 ठीक नहीं । काल और देशका नियम सूत्रमें तो कहा नहीं गया किंतु इसी सूत्रके द्वारा वहांपर उस
नियमकी सिद्धि है इसलिए अनुश्रेणि गतिः इस सूत्रमें काल और देशको नियमसिदिका सापक होने हूँ से 'अविग्रहा जीवस्य' यह सूत्र निष्षयोजन नहीं ॥२७॥
शरीररहित मुक्त जीवोंकी लोकके अग्रभाग पर्यंत मोडारहित गति एकसमय मात्र कही गई है है परंतु संसारी जीवोंकी गतिका कोई उल्लेख नहीं किया गया इसलिये वहांपर यह शंका होती है कि है 2 संसारी जीवोंकी गति मोडासहित है अथवा मुक्त जीवोंके समान मोडारहित है ! इसका समाधान
सूत्रकार करते हैं
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