Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अम्बाप
तरा भाषा
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विग्रहो देहस्तदर्था गतिविग्रहगतिः॥१॥ ____औदारिक वैक्रियिक आहारक आदि नामकर्मके उदयसे औदारिक आदि शरीरोंकी रचनामें 18| समर्थ अनेक प्रकारके पुद्गलोंको जो ग्रहण करे अथवा जिसके द्वारा उसतरहके अनेक प्रकारके पुद्गल हू ग्रहण किए जांय उसे विग्रह कहते हैं और उसका अर्थ शरीर है । उस शरीरकेलिए जो गति की जाय
वह विग्रहगति कही जाती है । शंका॥ तदर्थ अर्थ वलि हित सुख और रक्षित शब्दोंके साथ विकल्पसे चतुर्थी समासका विधान माना है। तथा तादर्थ्यमें वही समास होताहे जहांपर प्रकृतिका विकारमानागया है जिसतरह'यपाय दारु यप
दारु' अर्थात् यह दारुकी लकडी स्तंभकेलिए है, यहांपर दारुरूप प्रकृतिका यूप विकार है। किंतु जहां ||! पर प्रकृतिका विकार नहीं रहता वहांपर वादीमें चतुर्थी समास नहीं होता जिसतरह रंधनाय खाली ६ अर्थात यह बटलोई रांधनेकेलिए है, यहांपर रंधनस्थाली यह समासघटित प्रयोग नहीं होता क्योंकि
यहां प्रकृतिका विकार नहीं। 'विग्रहाय गतिः, विग्रहगतिः' यहाँपर भी तादर्थ्यरूप अर्थमें चतुर्थी मानी हा है परंतु यहांपर प्रकृतिका विकार नहीं इसलिए यहांपर चतुर्थीसमास बाधित है ? सो ठीक नहीं। अश्व
१-विग्रहो हि शरीरं स्याचदर्थ या गतिर्मवेत् । विशीपूर्वदेहस्य सा विग्रहगतिः स्मृता ॥२६॥
विग्रहका अर्थ शरीर है। उस शरीर लिए जो गमन किया जाता वह विग्रहगति कही जाती है । जीव जिप्तसमय दूसरा नवीन शरीर धारण करनेकेलिए प्रवृत्त होता है उससमय पहिले शरीरका परित्यागकर ही प्रवृत्त होता है । तत्वार्थसार पृष्ठ ८४।
२-'चतुर्थी तदर्थार्थवलिहितसुखरसितैः' चतुर्थ्यतार्थाय यचद्वाचिनार्थादिभिश्व चतुर्थ्यतं वा प्राग्वत् ( समस्यते ) तदर्थेन प्रकृतिविकृतिभाव एव गृह्यते बलिरक्षितग्रहणाबापकात् । यूपाय दारु यूपदारु । नेह रंधनाय स्थाली । सिद्धांतकौमुदी पृष्ठ ७१।
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