Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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र स्वरूप हैं और जहाँपर पर्यायोंकी विवक्षा है वहांपर स्पर्श रस आदि पर्याय भिन्न भिन्न हैं एवं पर्यायी || स्पर्शादिमान पदार्थ भिन्न हैं इसलिये पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा वे कथंचित् अनेक हैं । इसीतरह है। आगेके पांच भंगोंकी भी यहां योजना कर लेनी चाहिये ॥२०॥
स्पर्शन आदि इंद्रियों के समान मनका कोई निश्चित स्थान नहीं इसलिये वह इंद्रिय नहीं कहा जा सकता.इसरूपसे ऊपर मनको इंद्रियपनेका निषेध किया गर्या है। वहांपर यह शंका उठती है कि वह
अनिद्रियस्वरूप मन, ज्ञानदर्शनस्वरूप उपयोगका उपकारक है या नहीं ? यदि यह कहा जायगा कि मन | | का सहारा बिना लिये इंद्रियोंकी अपने अपने विषयोंमें प्रयोजनीय प्रवृचि नहीं हो सकती इसलिये मनः | ६ उपयोगमें अवश्य ही उपकारी है तब वहां यह कहना है कि-अपने अपने विषयों में इंद्रियों की सहायता हू मात्र करना ही मनका कार्य है अथवा और कुछ भी उसका कार्य है ? उत्तरमें इंद्रियोंके उपकारके सिवाय है अन्य भी मनका कार्य है ऐसा स्वीकार कर सूत्रकार उस अन्यकार्यको बतलाते हैं- ..
श्रुतमनिंद्रियस्य ॥२१॥ अर्थ-मनका विषय श्रुतज्ञानका विषय पदार्थ है।
वृत्त्यर्थ-सूत्रमें जो श्रुतशब्द है उससे श्रुतज्ञान के विषयभूत पदार्थका ग्रहण है। उसको मन विषय | है करता है क्योंकि जिसने श्रुतज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम प्राप्त कर लिया है ऐसे आत्माके, मनके |
| आश्रयसे जायमान ज्ञानकी श्रुतज्ञानके विषयभूत पदार्थमें प्रवृत्ति होती है अथवा श्रुत शब्दका अर्थ ॥ श्रुतज्ञान है वह मनसे होता है इसलिये मन पूर्वक होनेसे वह श्रुतज्ञान ही मनका कार्य है । इसप्रकार
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