Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अंतशब्दको संबंधी वा सापेक्ष शब्द.माना है। इसलिए वह अपनेसे पूर्व रहनेवाले शब्दोंकी अपेक्षा । रखता है एवं जहां पर अंतशब्दका प्रयोग रहता है वहांपर अर्थतः आदि शब्दकी प्रतीति रहती है इस | अध्याप लिए यहाँपर पृथिवीसे आदि लेकर वनस्पति पर्यंत जीवोंक एक स्पर्शन इंद्रिय ही होती है, यह अर्थ || समझ लेना चाहिए । शंका
___ अवशिष्टैकेंद्रियप्रसंगोऽविशेषात् ॥ ४॥न वा प्राथम्यवचने स्पर्शनसंपत्ययात् ॥५॥
एक शब्द सामान्यरूपसे एक संख्याका वाचक है तथा सूत्रमें ऐसा कोई विशेष भी नहीं कहा गया है है है जिससे एक शब्दसे अमुक ही इंद्रियका ग्रहण हो इसलिए पृथिवीको आदि लेकर वनस्पति पर्यंत - जीवोंमें स्पर्शन आदि इंद्रियोंमेंसे कोई एक इंद्रिय हो सकती है, केवल स्पर्शन इंद्रिय ही नहीं हो सकती ?
सो ठीक नहीं। एक शब्दका अर्थ प्राथम्य है। सत्र में जिस इंद्रियका पहिले कथन होगा उसीका यहां पर || 8 ग्रहण किया जायगा। स्पर्शनरसनेत्यादि सूत्रमें स्पर्शन इंद्रियका पहिले उल्लेख किया गया है इसलिए
यहांपर एकशब्दसे उसीका ग्रहण है इसरीतिसे पृथिवीकायको आदि देकर वनस्पतिकाय पर्यंत जीवोंके , हूँ एक स्पर्शन इंद्रिय ही होती है अन्य कोई इंद्रिय नहीं यह कथन निर्दोष है। यदि यहॉपर यह शंका की| • जाय कि एक शब्दका प्राथम्य अर्थ होता ही नहीं इसलिए उससे प्रथमोद्दिष्ट स्पर्शन इंद्रियका ग्रहण नहीं | है हो सकता ? सो ठीक नहीं। क्योंकि एको गोत्रे प्रथमो गोत्रे, अर्थात् गोत्रमें प्रथम, यहांपर एकशब्दका प्रथम अर्थ प्रसिद्ध है इसलिए कोई दोष नहीं। स्पर्शन इंद्रियकी उत्पचि इसप्रकार है
'वीयांतराय और स्पर्शनेंद्रियावरण कर्मके क्षयोपशम रहनेपर रसना आदि शेष इंद्रियसंबंधी सर्व६ घातीस्पर्धकोंके उदय रहने पर शरीर और 'अंगोपांग नामकर्मके लोभ रहनेपर तथा एकेंद्रिय जाति
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