Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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'मनुष्यादीनां यहां पर जो आदि शब्द सूत्रमें कहा गया है उसके यहां पर प्रकार (भेद) और | व्यवस्था दोनों अर्थ हैं। जिससमय यहां पर आगमकी विवक्षा नहीं की जायगी उससमय तो 'कृम्या.
दयः-कृमिप्रकाराः' अर्थात् 'कृमि आदिक' यह अर्थ है और जिससमय आगमकी विवक्षा की जायगी |उससमय आदि शब्दका अर्थ व्यवस्था है क्योंकि किन किनके कौन कौन इंद्रिय है यह बात आगममें
अच्छी तरह व्यवस्थित है । रसना आदि इंद्रियोंकी उत्पचि स्पर्शन इंद्रियके समान उचरोचर सर्वघातिया||| स्पर्धकोंके उदय रहनेपर समझ लेनी चाहिये अर्थात्- . 15 वीर्यातराय और रसनेंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम, प्राणादि इंद्रिय संबंधी सर्वघातिया स्पर्धकोंका 4) उदय, शरीर और अंगोपांगनामक नाम कर्मका बल एवं द्वींद्रिय जाति नाम कर्मके उदय रहनेपर रसना | इंद्रियकी उत्पत्ति होती है । वीयांतराय और प्राणेंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम चक्षु आदि इंद्रियसंबंधी | सर्वघातिया स्पर्धकोंका उदय शरीर और अंगोपांग नाम कर्मका बल एवं त्रींद्रिय जाति नाम कर्मके | उदय रहनेपर प्राण इंद्रियकी उत्पचि होती है । वीयांतराय और चक्षु इंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम श्रोत्रंद्रिय संबंधी सर्वघातिया स्पर्धकोंका उदय, शरीर और अंगोपांग नामक नाम कर्मका बल एवं चतुरिंद्रिय जाति नामक नाम कर्मके उदय रहनेपर चक्षु इंद्रियकी उत्पचि होती है । तथा वीयांतराय
और श्रोत्रंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम शरीर और अंगोपांग नामक नाम कर्मका बल और पंचेंद्रिय | जाति नामक नामकर्मके उदय रहनेपर श्रोत्र इंद्रियकी उत्पचि होती है ॥२३॥
संसारी जीवोंके त्रस और स्थावर दो भेद हैं वे कह दिये गये। उन्हींके पांच इंद्रियोंके भेदसे पांच | भेद हैं वे भी कह दिये गये संज्ञी नामका पंचेंद्रिय जीवोंका भेद नहीं कहा, सूत्रकार अब उसे कहते हैं
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