Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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' संज्ञिनः समनस्काः ॥२४॥ अर्थ-जो जीव मनसहित हैं वे संज्ञी कहे जाते हैं। .
मन पदार्थका ऊपर व्याख्यान कर दिया गया है । जिन जीवोंके उस मनको विद्यमानता हो वे ॐ जीव संज्ञी कहे जाते हैं। शंका‘समनस्कग्रहणमनर्थकं संज्ञिशब्देन गतत्वात् ॥१॥ हिताहितप्राप्तिपरिहारयोर्गुणदोषविचारणात्मिका संज्ञा ॥२॥
. . . ब्रिीह्यादिपठादिनिसिद्धिः ॥३॥ न वा शब्दार्थव्याभिचारात् ॥४॥ — 'संज्ञिनः समनस्काः ' इस सूत्रमें जीवके संज्ञी और समनस्क ये दो विशेषण माने हैं वहां पर संज्ञी और समनस्क दोनोंका समान अर्थ रहनेपर संज्ञी विशेषण ही यर्याप्त है समनस्क विशेषण देने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि यह पदार्थ हितकारी है और यह अहितकारी है। हितकी प्राप्ति होनेपर यह गुण प्राप्त होता है और अहितकी प्राप्ति होनेपर यह दोष होता है इसप्रकारका जो विचार है वही संज्ञा है और यही कार्य मनका भी है संज्ञा शब्दका ब्रीह्यादिगणमें पाठ होनेसे 'बीह्यादिभ्यश्च' इस सूत्रसे इन प्रत्यय करनेपर संज्ञी शब्द सिद्ध हुआ है इसरीतिसे संज्ञी और समनस्क जब दोनों शब्द समान अर्थके वाचक हैं तब संज्ञी कहना ही पर्याप्त है समनस्क विशेपणकी कोई आवश्यकता नहीं ? सो ठीक नहीं। हितकी प्राप्ति और अहितके परिहारमें क्रमसे गुण और दोषोंकी विचारणा रूपही यदि संज्ञा शब्दका अर्थ हो तब तो संज्ञी शब्दका प्रयोग ही उपयुक्त है समनस्क शब्द के उल्लेख की कोई आवश्यक्ता नहीं परंतु संज्ञा शब्दके तो नाम आदि अनेक अर्थ हैं जो कि सेनी असैनी दोनोंमें घट जाते हैं इसलिये असैनीमें भी चले जानेके कारण संज्ञित्व लक्षण व्यभिचरित है। खुलासा इसप्रकार है--
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