Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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में अध्याय
त०रा०
सर्वथा अभेद नहीं माना जा सकता। यदि कदाचित् स्पर्शादिमान पदार्थ और स्पर्श आदि गुणोंका
सर्वथा भेद माना जायगा तब दोनों ही पदार्थों का अभाव हो जायगा क्योंकि भिन्न भिन्नरूपसे दोनों RIL पदार्थ कहीं भी देखे सुने नहीं गये । इसप्रकार स्पर्श आदि गुणोंका आपसमें वा स्पर्शादिमान पदार्थसे ६७१ । सर्वथा भेद किंवा अभेद न मानकर कथंचित् भेद और अभेद ही मानना युक्तिसिद्ध है। यदि यहाँपर यह Bा शंका की जाय कि
स्पर्श रस आदि गुणोंका भिन्न भिन्न रूपसे ग्रहण होता है इसलिए वे भिन्न भिन्न ही हैं एक नहीं ? 5 सो भी ठीक नहीं। जिनका भिन्नरूपसे ग्रहण होता है वे भिन्न होते हैं यदि यह व्याप्ति निर्दोष हो तब | तो यह माना जा सकता है कि 'स्पर्श आदि गुणोंका भिन्न भिन्न रूपसे ग्रहण है इसलिये वे भिन्न हैं।
किंतु शुक्ल कृष्ण रक्त आदि पदार्थोंमें संख्या परिमाण पृथक्त्व संयोग विभाग परत्व अपरत्व कर्म सचा हैगुणत्व आदि हैं तो आपसमें भिन्न भिन्न धर्म, परंतु उन सबका रूपके साथ समवाय संबंध रहनेसे चक्षुसे ग्रहण अभिन्न रूपसे ही होता है इस रूपसे यहांपर अभिन्न रूपसे ग्रहण होनेपर भी जब संख्या परिमाण आदि भिन्न भिन्न हैं तब जिनका भिन्न रूपसे ग्रहण होता है वे भिन्न होते हैं यह व्याप्ति व्यभिचरित
हो गई इसलिये स्पर्श आदिका भिन्न रूपसे ग्रहण होनेपर वे भिन्न भिन्न ही हैं यह कहना ठीक नहीं। का यदि यहांपर यह कहा जाय कि
पदार्थका नाम भी उसका निज तत्त्व (स्वरूप वा लक्षण ) है जहां पर उसका भेद होगा वहां पर | | उसके भेदसे पदार्थोंका भी भेद माना जायगा । स्पर्श रस आदि गुणोंके स्पर्श रस आदि नाम भिन्न | भिन्न हैं इसलिये नामोंके भेदसे स्पर्श आदि गुण भी भिन्न भिन्न पदार्थ हैं, एक नहीं हो सकते ? सो
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