Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
"गंध आदि पृथिवीके परमाणुओंके ही गुण हैं जल आदिके निजीगुण नहीं किंतु पृथिवीके संबंधसे वे जल आदिके भी जान पड़ते हैं' इसवातका साधक कोई भी विशेष हेतु नहीं इसलिये पार्थिव परमाणुओंके संबंधसे जल आदिमें गंध आदिकी प्रतीति होती है जल आदिके गंध आदि निजी गुण नहीं यह कहना भ्रमपूर्ण है । चार्तिककार अपनी सम्मति प्रगट करते हैं कि
हम तो यह कहते हैं कि जिस गुणकी जिस पदार्थमें उपलब्धि है वह गुण उसी पदार्थका है किसी है। अन्य पदार्थके संयोगसे उसमें उस गुणकी प्रतीति नहीं होती। यदि कोई विशेष हेतु न देकर पार्थिव । परमाणुओंके संयोगसे ही जल आदिमें गंध आदिकी उपलब्धि जबरन मानी जायगी तब उनमें गंध आदिके समान रस आदिकी उपलब्धि भी जबरन मान लेनी चाहिये इसरीतिसे संयोगसे ही रस आदिको भी प्रतीति जल आदिमें हो जायगी, रस आदिको उनके निजी गुण मानने की कोई आव
श्यकता नहीं। इसलिये जल आदिके रस आदि जिसप्रकार निजी गुण हैं उसीप्रकार गंध आदि भी ॐ उनके निजी गुण हैं किंतु रस आदिके समान उनकी व्यक्ति न होनेसे उनकी उपलब्धि नहीं होती यही हूँ मानना युक्तियुक्त है।
नैयायिक आदि सिद्धांतकारोंने पृथिवी जल आदिको भिन्न भिन्न जातीय पदार्थ मान रक्खा है है परंतु वे पुद्गलस्वरूप होनेसे पुद्गल ही हैं क्योंकि जो पृथिवी है वह निमित्त कारणों के बलसे द्रवित 9 (वहता) दीख पडता है । बहने स्वरूप स्वभावका धारक जलकरका-आलेके पत्थर वा वरफके रूप में || कठिन दीख पडता है और वह करका भी द्रवित होती दीख पडती है। तेज भी मषी (राखी) आदि । 8 रूपमें दीख पडता है और पवनके अंदर भी रूप आदि गुण अनुभवसिद्ध हैं इसरीतिसे जब पृथिवी
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