Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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। व्याप्तेरोदयिकपारिणामिकग्रहणमादाविति चेन्न भव्यजीवधर्मविशेष
___ ख्यापनार्थत्वादादावौपशमिकादिभाववचनं ॥७॥ उक्त पांचो भावोंमें औदायक और पारिणामिक भाव सर्वजीव-साधारण है-सभी संसारी जीवोंके पाये जाते हैं इसलिये जहां जहां संसारी जीवत्व है वहां वहां औदायक पारिणामिक भाव हैं इस व्याप्ति इसे जब सभी संसारी जीवोंके औदयिक और पारिणामिक भाव सदा मौजूद रहते हैं तब औपशमिक
क्षायिकावित्यादि सूत्रमें पहिले इन्ही दोनों भावोंके नामका उल्लेख करना चाहिये औपशमिक आदिका है, नहीं ? सो ठीक नहीं। मोक्षशास्त्रका बनाना आदि जो भी प्रयत्न हैं वह भव्य जीवोंको मोक्ष तत्वके है। प्रतिपादनके लिये हैं। औपशमिक आदि तीन भाव भन्यके सिवाय अभव्यके नहीं होते इसलिये औप2 शमिक आदि तीनों भाव 'भव्योंके ही होते हैं अभव्योंके नहीं यह प्रकट करनेके लिये सूत्रमें पहिले औपशमिकादिकका उल्लेख किया गया है।
तत्र चादावौपशमिकवचनं तदादित्वात्सम्यग्दशर्नस्य ॥८॥अल्पत्वाच्च ॥९॥ सम्यग्दर्शन रूप पहिले औपशमिक भाव होता है पीछे क्षायोपशमिक और उसके वाद क्षायिक ६ भाव होता है अर्थात् जो कर्म सम्यग्दर्शन के विरोधी हैं अनादि मिथ्याहाष्टके पहिले उनकी उपशम
अवस्था होती है पीछे क्षयोपशम और क्षय अवस्था होती है इसी क्रमकी अपेक्षा सूत्रमें औपशमिक हूँ भावका सबसे पहिले उल्लेख किया गया है । और भी यह वात है कि
उपशम सम्यग्दर्शनका काल अंतर्मुहूर्त है । अंतर्मुहूर्तके समय असंख्यात हैं यदि हर एक समय निरवच्छिन्नरूपसे उपशम सम्यग्दृष्टि इकट्ठे किये जायं तो वे अंतर्मुहूर्त समयमें पल्यके असंख्यात भाग 2
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