Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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०रा० भाषा
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स्वीकार करता है उसके स्वपक्षका साधन और परपक्षका दृषणस्वरूप वचनका अपनेपक्षका सिद्धकरना
और परपक्षको दुषितकरना रूप परिणाम नहीं हो सकता क्योंकि जो पदार्थ जिस स्वरूप होता है उसका 8/ उस स्वरूपसे परिणाम नहीं होता 'स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषणस्वरूप अपने वचनका स्वपक्षको सिद्ध करना और परपक्षको दूषित करना रूप परिणाम है इसलिये वह भी नहीं बन सकता परंतु जिसप्रकार वादीको दूधका दही परिणाम इष्ट है क्योंकि वह दूधसे भिन्न है किंतु दूधका दूधस्वरूपसे परिणमन होना इष्ट नहीं क्योंकि वहांपर अभेद है उसी प्रकार वादीका जो स्वपक्षसाधन रूप वचन है उसका | स्वपक्षका सिद्ध करना यह तो परिणाम होगा नहीं क्योंकि वह स्वपक्षसाधनस्वरूप वचनसे अभिन्न है। | किंतु परपक्षका दूषित करना यही परिणाम होगा क्योंकि वह स्वपक्षसाधनरूप वचनसे भिन्न है इसलिये 'उपयोग आत्मासे भिन्न होता है' इस स्वपक्ष सिद्धिमें जो साधक कारण कहे गये हैं वे स्वपक्षको सिद्ध करनारूप स्वस्वरूपसे परिणत न होने के कारण ठीक नहीं । तथा इसी प्रकार वादीका जो परपक्ष दूषण रूप वचन है उसका भी परपक्षको दूषितकरना' यह तो परिणाम होगा नहीं क्योंकि वह परपक्षदूषण स्वरूप वचनसे अभिन्न है किंतु स्वपक्षका सिद्धकरना यहीं परिणाम होगा क्योंकि वह परपक्षदूषण
स्वरूप वचनसे भिन्न है इसलिये उपयोग' आत्मासे अभिन्न होता है इस परपक्षमें जो दूषण दिये गये है हैं वे स्वरूपसे परिणत न होनेके कारण अयुक्त हैं। यदि यहांपर यह कहा जाय कि--
स्वपक्षका साधक और परपक्षका दूषक भी वचन अपने पक्षको सिद्ध करना और परपक्षको दूषित करना रूप अपनी पर्यायोंसे परिणत होता है ऐसा हम मानते हैं तब यह जो तुमने कहा है कि उपयोग, आत्मस्वरूप नहीं होता भिन्नही होता है । यदि उसे.आत्मस्वरूप माना जायगा तो उसका उपयोग है
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