Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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मध्यान
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हे और असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबंधाध्यवसायस्थानोंके हो जानेपर एक कषायाध्यवसायस्थान चरा होता है तथा असंख्यात लोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थानोंके हो जानेपर एक स्थिति स्थान होता
IPL है इसक्रमसे ज्ञानावरण आदि समस्त मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृतियोंके समस्त स्थानोंके पूर्ण होने ६३१ पर एक भाव परिवर्तन होता है । जैसे किसी पर्याप्त मिथ्यदृष्टि संज्ञी जीवके ज्ञानावरण कर्मकी अंत:*. कोडाकोडी सागरप्रमाण जघन्य स्थितिका बंध होता है यही यहांपर जघन्यस्थितिस्थान है इसलिये
इसके योग्य विवक्षित जीवके जघन्य ही अनुभागबंधाध्यवसायस्थान जघन्य ही कषायाध्यवसायस्थान और जघन्य ही योग स्थान होते हैं। यहां से ही भाव परिवर्तनका प्रारंभ होता है अर्थात् इसके आगे श्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थानोंके क्रमसे हो जानेपर दूसरा अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होता है । इसके बाद फिर श्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थानोंके क्रमसे हो जानेपर तीसरा अनुभाग बंधाध्यवसायस्थान होता है। इस ही क्रमसे असंख्यातलोकप्रमाण अनुभाग बंधाध्यवसायस्थानोंके। | हो जानेपर दूसरा कषायाध्यवसायस्थान होता है । जिस क्रमसे दूसरा कषायाध्यवसायस्थान हुआ उसही क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थानोंके हो जानेपर जघन्य स्थितिस्थान होता है । जो क्रम जघन्य स्थितिस्थानमें बताया वही क्रम एक एक समय अधिक द्वितियादि स्थिति स्थानोंमें | समझ लेना चाहिये। तथा इसी क्रमसे ज्ञानावरणके जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तक समस्त स्थितिस्थानों के हो जानेपर और ज्ञानावरणके स्थितिस्थानोंकी तरह क्रमसे संपूर्ण मलवा उत्तरप्रक्रतियों के समस्त स्थिति ॥ स्थानोंके पूर्ण हो जानेपर एक भावपरिवर्तन होता है । इस परिवर्तनमें जितनाकाल लगे उसका नाम भावः । परिवर्तनकाल है। पांचो परिवर्तनोंके लिये यह नियम है कि जहांपर क्रम भंग होगा वहांपर वह गणना
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