Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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AB5
अपार
-156IDHAN
नानाभिसंबंधात् ॥ ७॥इतरथान्यतरत्र संसारिग्रहणे सतीष्टार्थात्वादुपरि संसारिगृहणमनर्थकं ॥८॥
संबंधका करना इच्छाके आधीन है। यहॉपर संसारि शब्दके संबंध ही की इच्छा है त्रस और स्थावरके संबंधकी नहीं इसलिये 'ममनस्कामनस्काः' इस सूत्रमें संसारीकाही संबंध है । गदि ६ 'संसारिणत्रसस्थावराः' इस सूत्रके संसारी शब्दके संबंधके समान त्रस और स्थावर शब्दका भी 'सम-दू
नस्कामनस्काः' इस सूत्र में मंबंध रहता तब "समनस्कामनस्काः संसारिणत्रसस्थावरा" ऐसा एक ही हूँ ल सूत्र बनाना ठीक था परंतु वैसा नहीं बनाया इसलिये जान पडता है कि यहॉपर उस और स्थावर है। * शब्दका संबंध इष्ट नहीं अथवा___संसारिणो मुक्ताच, समनस्कामनस्काः, संसारिणस्त्रसस्थावराः, इन तीनों सूत्रोंका एक योग नहीं
किया इसलिये जान पडता है कि पहिले सूत्रके संसारि और मुक्त शब्दोंका तथा आगे सूत्रके त्रस 5 और स्थावर शब्दोंका 'समनस्कामनस्काः ' इस सूत्रमें संबंध नहीं किंतु केवल संसारी शब्दका ही संबंध
है। अन्यथा यदि संसारी और मुक्त एवं त्रस और स्थावर शब्दोंके साथ भी इसका संबंध माना जायगा ५ हूँ तो "संसारिमुक्ताः समनस्कामनस्कास्त्रसस्थावरा" ऐसा एक योग करना ही ठीक होता ऐसा होनेमे है # समनस्कामनस्काः ' इस सूत्रकी आदि वा अंतमें एक जगह संसारि शब्दके उल्लेखसे ही अभीष्ट अर्थ । सिद्ध हो जाता फिर 'संसारिमुक्ताः' यहॉपर कहे गये संसारि शब्दसे अभीष्ट सिद्धि होनेपर 'संसारि# * णस्रसस्थावराः' इमसूत्रमें संसारि शब्दका ग्रहण अनर्थक ही था। परंतु वैसा अर्थ सिद्धांतानुकूल नहीं इसलिये जैसा सूत्रोंका निर्माण हे वैसा ही ठीक है। आदौ समनस्कग्रहणमभ्यर्हितत्वात् ॥९॥
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