Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याप
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. स्पर्शनादीनां करणसाधनत्वं पारतंत्र्यात कर्तृसाधनत्वं च स्वातंत्र्याबहुलवचनात् ॥१॥
स्पृश आदि धातुओंसे पुद् प्रत्यय करनेपर स्पर्शन आदि शब्दोंकी सिद्धि होती है। लोकमें इंद्रियों है की स्वकार्यके करनेमें परतंत्रता.अनुभवमें आती है. इसलिये स्पर्शन आदि करण साधन हैं क्योंकि , जिससमय इंद्रियोंकी परतंत्रत्वेन विवक्षा की जाती है और आत्माका स्वातंत्र्य माना जाता है उससमय 'अनेनाक्ष्णा अहं सुष्टु पश्यामि' (इस आंखके द्वारा मैं अच्छी तरह देखता हूं ) 'अनेनकर्णेनाहं सुष्टु, शृणोमि' (इस कानसे मैं अच्छीतरह सुनता हूं) ऐसा संसारमें व्यवहार होता है । यदि उन्हें करण साधन न माना जाय तो इसरूपसे संसारमें व्यवहार नहीं हो सकता इसरीतिसे वीयांतराय और स्पर्शन हूँ रसना आदि भिन्न भिन्न इंद्रियावरण काँके क्षयोपशमसे एवं अंगोपांग नामक नामकर्मके बलसे जिसके है द्वारा आत्मा पदार्थों का स्पर्श करै वह स्पर्शन इंद्रिय है। जिसके द्वारा स्वाद ले वह रसना, जिसके है द्वारा सूधै वह प्राण, जिसके द्वारा देख वह चक्षु और जिसके द्वारा सुने वह श्रोत्र यह स्पर्शन आदि इंद्रियोंकी करण साधन व्युत्पचि है तथा---
लोकमें इंद्रियोंकी स्वकार्यके प्रति स्वतंत्रता रूपसे भी विवक्षा है इसलिये वे कर्तृसाधन भी हैं क्योंकि 'इदं मे अक्षि सुष्टु पश्यति' (यह मेरा नेत्र अच्छी तरह पदार्थों को देखता है) और 'अयं मे कर्णः ॐ सुष्टु शृणोति' ( यह मेरा कान अच्छी तरह सुनता है) यह संसारमें व्यवहार होता है । यदि उन्हें कर्तृहूँ, साधन न माना जायगा तो इसरूपसे संसारमें व्यवहार नहीं हो सकता। इसरीतिसे उपर्युक्त वीर्यातराय है और स्पर्शन रसन आदि भिन्न भिन्न इंद्रियावरणकर्मों के क्षयोपशमसे एवं अगोपांग नामक नामकर्मके
बलसे जो स्वयं पदार्थों का स्पर्श करे वह स्पर्शन है। स्वयं रसोंको चखेवह रसना, स्वयं गंधवाले पदार्थों को
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