Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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| होनेवाली जो कोई विशेष पर्याय है उसका नाम इंद्रिय है । इंद्रियके स्पर्शन रसना आदि पांच भेद हैं || उनका आगे उल्लेख किया जायगा। शंका
मनोऽपींद्रियमिति चेन्नानवस्थानात् ॥ ३॥ इंद्रियपारणामाच्च प्राक् तद्व्यापारात्॥४॥ ___ कर्मोंसे मलिन निस्सहाय आत्मा बिना मनकी सहायताके पदार्थों के विचार करनेमें असमर्थ है || इसलिये पदार्थोंके चितवन करनेमें मन कारण पडता है तथा नो इंद्रियावरणकर्मके क्षयोपशमसे मनकी
उत्पत्ति मानी है इसलिये वह कर्मजनित है इसरीतिसे इंद्रिय के जो ऊपर लक्षण बतलाये है वे दोनों | मनके अंदर घटजानसे उसे भी इंद्रिय कहना चाहिये ? सो ठीक नहीं। जिसप्रकार चक्षु आदि इंद्रियोंके रहनेका स्थान प्रतिनियत है उसप्रकार मनके रहनेका कोई प्रतिनियतस्थान नहीं दीख पडता इसलिये प्रतिनियत स्थानके अभावसे वह आनंद्रिय ही है इंद्रिय नहीं कहा जा सकता तथासंसारमें यह बात प्रतीति सिद्ध है कि जिस मनुष्यको सफेद रूप आदिके देखनकी इच्छा होती है वापर खट्टा मीठा आदि रस चाखनेकी अभिलाषा होती है वह पहिले मनसे यह विचार लेता है कि मैं ऐसा रूप देखूगा वा ऐसा रस चाखूगा उसी विचारके अनुसार चक्षु आदि इंद्रियां इष्टरूप रस आदि विषयों में व्यावृत होती हैं इस रातिसे नेत्र आदि इंद्रियों द्वारा होनेवाले रूप आदि ज्ञानसे पहिले ही जब मन का व्यापार है तब चक्षु आदि इंद्रियोंमें और मनमें विषमता रहनसे चक्षु आदिके समान मनः इंद्रिय नहीं कहा जा सकता किंतु वह अनिद्रिय ही है । शंका
कर्मेद्रियोपसंख्यानमितिचेन्नोपयोगप्रकरणात् ॥५॥ अनिद्रियत्वं वा तेषामनवस्थानात् ॥६॥ जिसतरह रूप रस आदि पदार्थों के ज्ञानमें कारण स्पर्शन आदि बुद्धींद्रियां मानी गई हैं उसीप्रकार
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