Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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रीतिसे जब वाक् आदिमें इंद्रियपना सिद्ध नहीं तब यहां इंद्रियप्रकरणमें उनका ग्रहण भी नहीं किया जा सकता॥१५॥ ___भोक्ता आत्माको इष्ट अनिष्टरूप विषयोंकी उपलब्धि करानेवाली और उपर्युक्त सामर्थ्य विशेषसे निश्चित भेदवाली जो इंद्रियां हैं उनमें हरएकके कितने भेद हैं। सूत्रकार यह बतलाते हैं
द्विविधानि ॥१६॥ अर्थ-पांचों इंद्रियों में प्रत्येक इंद्रियके द्रव्येद्रिय और भावेंद्रियके भेदसे दो दो भेद हैं।
विधिशब्दस्य प्रकारवाचिनो गृहणं ॥१॥ .. विध-युक्त-गत और प्रकार ये चारों शब्द समान अर्थके वाचक हैं इसलिए यहांपर विध शन्दका | अर्थ प्रकार है। दौविधौ येषां तानि दिविधानि-द्विप्रकाराणि यह द्विविध शब्दका अर्थ पूर्ण विग्रह है । है। वे दोनों प्रकार द्रव्यद्रिय और भावेंद्रिय हैं ॥१६॥ सूत्रकार द्रव्येंद्रियका स्वरूप निरूपण करते हैं
नित्त्युपकरणे द्रव्येंद्रियं ॥ १७॥ अर्थ-निर्वृत्ति और उपकरणके भेदसे द्रव्येंद्रिय दोप्रकारका है।
निर्वृत्त्यत इति निवृत्तिः॥१॥ द्वैधा वाह्याभ्यंतर भेदात् ॥ २॥ नामकर्मके उदयसे जो रचना विशेष हो उसे निवृत्ति कहते हैं और वह वाह्यनिर्वृचि और अंतरंग निचिके भेदसे दो प्रकारकी है।
तत्र विशुद्धात्मप्रदेशवृत्तिराभ्यंतरा ॥३॥
REAKISANSAR