Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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उत्सेधांदुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण विशुद्ध आत्मप्रदेशोंका जो भिन्न भिन्न रूपसे नेत्र आदि इंद्रियों के मसूर आदि आकार और प्रमाणस्वरूप परिणत होना है वह अंतरंग निवृत्ति है । तथा
तत्र नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयो वाह्या ॥४॥ उन्हीं आत्माके विशुद्ध प्रदेशोंमें इंद्रियोंके नामसे कहे जानेवाले भिन्न भिन्न आकारोंके धारक है। संस्थान नामकर्मके उदयसे होनेवाले अवस्थाविशेषसे युक्त जो पुद्गलपिंड है वह वाह्य निवृत्ति है।
विशेष-आत्माके प्रदेशोंका इंद्रियोंके आकार परिणत होना अभ्यंतरनिर्वृचि है और पुद्गल परमाणुओंका नासिका आदि इंद्रियोंके आकार परिणत हो जाना वाह्यनिचि है । जिसतरह-मसूरके समान आकारवाली नेत्र इंद्रियमें नेत्रंद्रियके आकाररूप जितने आत्माके प्रदेश विद्यमान हैं वे अभ्यंतर निवृचि कहे जाते हैं और उस नेत्र इंद्रियके आकार जितने पुद्गलके परमाणु समूहरूपसे विद्यमान हैं उन्हें वाह्य निर्वृचि कहते हैं।
उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणं ॥५॥ तद्विविधं पूर्ववत् ॥६॥ जो निचिका सहायक हो वह उपकरण है और वह वाह्य और अभ्यंतर उपकरणके भेदसे दो | प्रकारका है।
१ 'केवल आत्मप्रदेशोंका' यह अर्थ समझ लेना चाहिये । यवनालमसूरातिमुक्तेन्दूर्धसमाः क्रमात् । श्रोत्राशिघ्राणजिहाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थिति ॥५०॥त. सा. पृष्ठ ६२ ।
कानोंका यवकी मध्य नालीकासा भाकार होता है, नेत्रका मसूरके समान, नाकका विल पुष्पके समान, जीभका अर्धचंद्रके. पू|| समान और स्पर्शन-इंद्रियका अनेक प्रकारका साकार होता है।
EASORRORECEMARE