Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्यार
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बहुतसे पंडितमन्य वादियों में कोई पांच इंद्रिय मानते हैं कोई छह इंद्रिय मानते हैं और कोई (सांख्यमती) ग्यारह इंद्रिय मानते हैं उन अनिष्ट मतोंके खंडनार्थ इंद्रियां पांच ही हैं आधिक नहीं यह नियम प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
पंचेंद्रियाणि ॥१५॥ अर्थ-सब इंद्रियां पांच हैं। वार्तिककार इंद्रिय शब्दका अर्थ बतलाते हैं
___ इंद्रस्यात्मनोलिंगमिंद्रयं ॥ १॥ इंद्रेण कर्मणा सृष्टमिति वा ॥२॥ इंद्रका अर्थ परमैश्वर्यका भोगनेवाला परमेश्वर है। कर्म बंधनोंमें जिकडे रहनेके कारण यद्यपि | संसारी आत्मा परमेश्वर नहीं है तथापि उसके होनेकी उसके अंदर शक्ति मौजूद है इसीतसे कर्मबंधनों|में फसा रहनेपर भी इंद्रनामके धारक उपभोग करनेवाले एवं स्वयं पदार्थोंके ग्रहण करनेमें असमर्थ
आत्माको पदार्थोंके देखने और जाननेरूप उपयोगमें सहायता पहुंचानेवाला जो लिंग हो उसे इंद्रिय कहते हैं। अथवा-- ___अपने द्वारा उपार्जन किये गये कर्मोंके द्वारा यह आत्मा देवेंद्र आदि पर्यायोंमें तथा तिर्यच आदि | पर्यायोंमें इष्ट अनिष्ट पदार्थोंका अनुभव करता है इसलिये कर्मका भी नाम इंद्र है । उस इंद्र-कर्म बारा १ सांख्यसिद्धांतकारने बुदींद्रिय और कर्मेंद्रियके भेदसे मूलभेद इंद्रियों के दो माने हैं। उनमें
. बुद्धींद्रियाणि चक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनत्वगाख्यानि । वाकपाणिपादपायूपस्थाः कर्मेंद्रियाव्याहुः ॥२६॥ इस कारिकाके अनुसार चक्षु श्रोत्र घाण रसना और त्वक ये पांच बुद्धींद्रिय, वचन हाथ पांव गुदा और लिंग ये पांच कमें-1 द्रिय एवं मन इसप्रकार ग्यारह इंद्रियां मानी हैं। सांत. कौ० ।
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