Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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६ वहांपर भी नरकगतिके समान एक एक समयके अधिक क्रमसे तिर्यंच गति संबंधी तीन पल्यकी उत्कृष्ट पा आयुको पूर्ण किया । पीछे तिर्यग्गतिके समान मनुष्य गतिकी भी तीन पल्यकी उत्कृष्ट आयुको पूर्ण
किया उसके बाद दश हजार वर्षके जितने समय हैं उतनीबार जघन्य दश हजारवर्षकी आयुसे देव- ६ ३० गतिमें उत्पन्न होकर पीछे एकएक समयके अधिक क्रमसे इकतीससागरकी उत्कृष्ट आयुको पूर्ण किया। हूँ
है विशेष-यद्यपि देवगतिमें उत्कृष्ट आयु तेतीससागरकी है तथापि यहां इकतीस सागरकी आयुका ही हूँ द ग्रहण किया गया है क्योंकि मिथ्यादृष्टि देवकी उत्कृष्ट आयु इकतीससागर तक ही होती है और इन है
परिवर्तनोंका निरूपण मिथ्यादृष्टि जीवकी अपेक्षा ही है सम्यग्दृष्टि तो अर्धपुद्गलपरावर्तनका जितना काल है उससे अधिक संसारमें नहीं रहता। इसक्रमसे चारों गतियोंमें भ्रमणकरनेमें जितनाकाल लगे, उतने कालको एक भवपरिवर्तनका काल कहते हैं। तथा इतने कालमें जितना भ्रमण किया जाय , उसका नाम भव परिवर्तन है।
योगस्थान अनुभागबंधाध्यवसायस्थान कषायाध्यवसायस्थान स्थिति-स्थान इन चारके निमिचसे हूँ भाव परिवर्तन होता है। प्रकृति और प्रदेश बंधको कारण भूत आत्माके प्रदेश परिस्पंदरूप योगके है तरतम रूप स्थानोंको योगस्थान कहते हैं। जिनकषायके तरतमरूप स्थानोंसे अनुभाग बंध होता है उनको अनुभागबंधाध्यवमायस्थान कहते हैं। स्थितिबंधको कारणभूत कषायपरिणामोंको कषायाध्य, वषायस्थान वा स्थितिबंधाध्यवसायस्थान कहते हैं। वंधरूप कर्मकी जघन्य आदि स्थितिको स्थितिस्थान ६ कहते हैं। इनका परिवर्तन दृष्टांत द्वारा इसप्रकार है--
श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण योग स्थानोंके होजानेपर-एक अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होता है
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