Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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P में सामिल न किया जायगा। इसप्रकार यह संक्षेपसे द्रव्यादि पांचो परिवर्तनों का स्वरूप है। इनकाकाल उत्तरोचर अनंत अनंत गुणा है। ,
स येषामस्ति ते संसारिणः ॥ २॥ निरस्तद्रव्यभावबंधा मुक्ताः॥३॥ यह पंचपरावर्तनरूप संसार जिनके हो वे संसारी जीव कहे जाते हैं । द्रव्यबंध और भावबंधके ६ | भेदसे बंधतत्त्व दो प्रकारका है । ज्ञानावरण आदि कर्म स्वरूप और नोकर्मस्वरूप परिणत पुद्गल दू द्रव्यका नाम द्रव्यबंध है और क्रोध मान राग द्वेष आदि परिणत आत्मा भाव बंध है । जिन पवित्र हैं आत्माओंने दोनों प्रकारके बंधोंका त्याग कर दिया है वे मुक्त हैं । शंका
इंद्वनिर्देशो लघुत्वादिति चेन्नार्थांतरप्रतीतः॥४॥ ___ 'संसरिणौ मुक्ताश्च' यहांपर वाक्यरूपसे सूत्रका उल्लेख न कर संसारिणश्च मुक्ताश्च संसारिमुक्ताः । ऐसा द्वंद्वसमास मानना चाहिये लाभ यह है कि च शब्द न कहना पडेगा इसलिये लाघव होगा तथा सूत्रका जो अर्थ है उस अर्थ में किसीप्रकारकी बाधा भी न होगी? सो ठीक नहीं । संसारी और मुक्त दोनों शब्दोंमें मुक्त शब्द पूज्य और अल्पाक्षर है इसलिये द्वंदसमास करनेपर मुक्त शब्दका ही पूर्व
निपात होनेसे मुक्त संसारिण' ऐसा सूत्र करना पडेगा तथा "मुक्तः संसारो येन भावेन स मुक्तसंसारः, 8 तद्वंतो मुक्तसंसारिणः” अर्थात् जिस स्वरूपसे संसारका छूटजाना हो वह मुक्तसंसार और उससे विशिष्ट ॐ मुक्तसंसारी है यह मुक्तसंसारी शब्दका अर्थ होगा एवं उससे ज्ञानदर्शनस्वरूप उपयोगवान मुक्तसंसारी | अर्थात् सिद्ध जीव ही कहे जायगे संसारी जीव न कहे जायगे इसरीतिस द्वंद समास माननेपर इस दूमरे अर्थको प्रतीतिसे विपरीत अर्थ होगा अतः द्वंद्व समास न मानकर 'संसारिणौ मुक्ताश्च यह वाक्यार्थ || ही उपयुक्त है । यदि यहां पर फिर यह शंका की जाय कि
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