Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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संसारिणोमुक्ताश्च ॥१०॥ ___ अर्थ-संसारी और मुक्तोंके भेदसे जीव दो प्रकारके हैं।जो जीव कर्मसहित हैं।कर्मोंकी पराधीनताके अध्याय कारण अनेक जन्म मरणोंको करते हुए संसारमें भ्रमण करते रहते हैं वे संसारी कहे जाते हैं और जो है। समस्त कर्मोंको काटकर मुक्त हो गये हैं उनको मुक्तजीव या सिद्धजीव कहते हैं। वार्तिककार संसारका लक्षण बतलाते हैं- .
आत्मोपचितकर्मवशादात्मनो भवांतरावाप्तिः संसारः॥१॥ ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनी आयु नाम गोत्र और अंतरायके भेदसे कर्म आठ प्रकारका हूँ है है तथा प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश रूप बंधोंके भेदसे और भी उसके अनेक भेद माने हैं । इन
आठों कर्मोंका आत्मा संचय करता रहता है उन कर्मों के द्वारा आत्माका जो एक भवसे दूसरे भवमें जाना है उसका नाम संसार है । वार्तिकमें जो दो वार आत्मा शब्दका ग्रहण है उसका तात्पर्य यह है । कि कर्मोंका कर्ता आत्मा है और उन कर्मोंसे जायमान फलका भोक्ता भी आत्मा ही है । अन्य कोई । भोक्ता नहीं। .
साख्योंका सिद्धांत है कि सत्त्व रज और तम स्वरूप प्रकृति कर्मोंकी करनेवाली है और पुरुष ६ टू आत्मा उनके फलोंका भोक्ता है ? सो ठीक नहीं। जिसप्रकार घट पट आदि अचेतन हैं इसलिये वे पुण्य डू है पाप रूप कर्मों के कर्ता नहीं उसीप्रकार प्रकृति भी अचेतन पदार्थ है इसलिये वह भी कर्मोंके करनेवाली है नहीं मानी जा सकती। तथा पुरुषको जो प्रकृति द्वारा उपर्जित कर्मों के फलका भोक्ता माना है वह भी २ ६२६
ठीक नहीं क्योंकि परपदार्थ प्रकृति आदि सदा रहने वाले हैं यदि उनके द्वारा उपार्जित कमौके फलका. 15
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