Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याप
रा० भाषा
| दचका घर है। यहाँपर जिसप्रकार जबतक काक बैठा है तबतक देवदचका घर है और काक के उडजाने ॥६॥ पर देवदत्तका घर नष्ट हो जाता है उसीप्रकार क्षणविनाशीक ज्ञान और दर्शनस्वरूप आत्माके मानने ||६||
। पर जबतक ज्ञान और दर्शन है तबतक आत्मा है और जब उनका नाश होगा उससमय आत्माका भी ६०३
नाश होगा क्योंकि स्वस्वरूप उपयोगके अभावमें आत्माका भी अभाव हो जाता है इसरीतिसे आत्मा || का उपयोग लक्षण नहीं बन सकता ? इसका समाधान वार्तिककार देते हैं
आत्मनिन्हवो न युक्तः साधनदोषदर्शनात् ॥ १७ ॥ हेतुरयमसिद्धो विरुद्धोऽनैकांतिकश्च ॥ १८॥
'नास्त्यात्मा अकारणत्वान्मंडूकशिखंडवत्' अर्थात् आत्मा कोई पदार्थ नहीं क्योंकि उसका कोई || कारण सिद्ध नहीं जिसतरह मैढककी चोटी । इस अनुमानसे आत्माका अभाव किया जाता है परंतु
| वह ठीक नहीं क्योंकि यहांपर जो 'अकारणत्वात् यह हेतु है वह असिद्ध विरुद्ध और अनेकांतिक रूप | || जो हेतुके दोष माने गये हैं उनसे दुष्ट है । और वह इसप्रकार है| नरक देव आदि पर्यायें आत्मद्रव्यसे भिन्न नहीं, आत्मद्रव्यस्वरूप ही हैं और नरक आदि पर्यायों। के उत्पादक कारण मिथ्यादर्शन अविरति आदि शास्त्र में वर्णित हैं इसरीतिसे जब आत्माका उत्पादक का कारण सिद्ध है तब अकारणत्वरूप हेतु आत्मारूप पक्षमें न रहने के कारण स्वरूपौसिद्ध है । तथा जो
१-'असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः ।। २२ ।। अध्याय ६ । जिसकी सत्ताका पक्षमें प्रभाव हो वा निश्चय न हो उसे असिद्ध कहते हैं अर्थात् जिस हेतुका स्वरूपही नहीं बन सके उसे स्वरूपासिद्ध कहते हैं और जिसकी सत्ताका पक्षमें निश्चय न हो वह संदिग्धासिद्ध
है। जिसतरह शब्द परिणामी है क्योंकि वह चाक्षुष नेत्रका विषय है यहांपर शब्दरूप पक्षमें न रहने के कारण चाक्षुषस्व हेतु स्वरूपाला सिद्ध है। क्योंकि शब्दका चाक्षुषस्वरूप ही नहीं बनता तया जिसको धूमका यथार्यरूपसे ज्ञान नहीं उससे यह कहना कि यहां
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