Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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| ज्ञानके विषय नहीं क्योंकि अग्राहक जो इंद्रियांरूप कारण उनसे घटपट आदिका ग्रहण होता है जिस | तरह धूम आदिस अनुमित अग्नि । अर्थात् जिसतरह धूम आदिसे अनुमित अग्नि परोक्ष है उसीप्रकार
इंद्रियोंसे ग्रहण किये गये घट पट आदि भी परोक्ष हैं । यदि यहांपर यह कहा जाय कि 'अग्राहकनिमित्त हू ग्राह्यत्वात्' इस हेतु अग्राहकपना इंद्रियोंका असिद्ध है एवं उसकी असिद्धता होनेसे वह असद्धेतु होने
के कारण उससे घट पट आदिकी अप्रत्यक्षसिद्धि वाधित है ? सो ठीक नहीं। क्योंकि 'अग्राहकमिद्रियं तद्विगमेऽपि गृहीतस्मरणाद्वाक्षवत्' इंद्रियां अग्राहक हैं क्योंकि उनके नष्ट हो जानेपर भी जिस पदार्थका ग्रहण हो चुका है उसका स्मरण होता है जिसतरह गवाक्षका । अर्थात नेत्र आदि इंद्रियोंके नष्ट होजाने पर भी पहिले देखे हुए गवाक्ष आदिका स्मरण होता है यदि इंद्रियां ही घट पट आदिकी ग्राहक होती तो स्मरणके द्वारापहिले देखे हुए घट पट आदिका ग्रहण नहीं होता किंतु इंद्रियोंके साथ ही वह स्मरण नष्ट हो जाता परंतु नष्ट नहीं होता इसलिये इंद्रियोंको ग्राहक न मानकर आत्माको ही ग्राहक मानना पंडेगा इसरीतिसे जब यह बात सिद्ध हो चुकी कि इंद्रियोंके अग्राहक होनेसे उनसे जायमान ज्ञानप्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष है जब अप्रत्यक्षवरूप हेतुकी आत्मामें संचा सिद्ध न होनेसे जो ऊपर असिद्ध दोष दिया गया था उसका परिहार नहीं हो सकता एवं असिद्ध दोषसे दूषित हेतु. साध्यकी सिद्धिमें समर्थ नहीं माना जाता इसलिये अप्रत्यक्षत्व हेतसे आत्माकानास्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। तथा
'न प्रत्यक्ष इति अप्रत्यक्ष' इसप्रकार यहां न समास' है । पर्युदास और प्रसज्यके भेदसे वह नझे समास दो प्रकारकी मानी गई है । उनमें अपने सदृशका ग्रहण करनेवाला पर्युदास न है
१ द्वौ ननौ च समास्यातौ पर्युदास प्रसष्पकौ । पर्युदाः संग्ग्राही प्रसव्वस्तु निपेषकत् ॥१॥
SCAMERABASINE
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