Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्यार
उययोगसंबंधो लेक्षणमिति चेन्नान्यत्वे संबंधाभावात् ॥२४॥ जिसतरह दंड देवदचसे जुदा है इसलिये उसे लक्षण न मान, उसके संयोगको लक्षण माना गया ई है। यदि दंडको ही लक्षण माना जायगा तो जिसकालमें दंड देवदचसे जुदा पड़ा हुआ है उससमय ६२१|| भी वह लक्षण मानना पडेगा जो कि बाधित है । उसीप्रकार उपयोग भी आत्मासे भिन्न पदार्थ है इस
|| लिये उसे लक्षण न मानकर उसके संबंधको लक्षण मानना चाहिये इसरीतिसे क्रियावान गुणवान और
समवायिकारण हो वह द्रव्य है यह द्रव्यका लक्षण कहा गया है वह ठीक है क्योंकि संयोगस्वरूप गुण
वान होनेसे आत्मामें द्रव्यका लक्षण निर्वाध है ? सो ठीक नहीं। यदि उपयोगरूप गुणको द्रव्यसे भिन्न ॥ माना जायगा तो बिना किसी संबंधके 'उपयोग आत्माका गुण है' यह नहीं कहा जा सकता । संबंध ना कोई सिद्ध है नहीं यह बात ऊपर अच्छीतरइ कही जा चुकी है इसलिये उपयोगको आत्मभूत मानकर
| ही उसे लक्षण मानना निर्दोष है । भिन्न होकर वह आत्माका लक्षण नहीं कहा जा सकता ॥८॥ | 'उपयोगो लक्षणं' इससूत्रमें जो उपयोग पदार्थका उल्लेख किया गया है सूत्रकार उसके भेद बतलाते हैं--
स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः॥६॥ अर्थ-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके भेदसे वह उपयोग दो प्रकारका है। उनमें मति श्रुत अवधि 8|| मनःपर्यय केवल कुमति कुश्रुत और कुअवधिके मेदसे ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है एवं चक्षुदर्शन
अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन केवलदर्शनके भेदसे दर्शनोपयोग चार प्रकारका है । उपयोग दो प्रकारका किसरूपसे है ? इस बातको वार्तिककार बतलाते हैं
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