Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
परा माषा
६१३
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और सर्वथा निषेधरूप अर्थ प्रसज्यका है । 'अप्रत्यक्ष यहाँपर प्रत्यक्षादन्या अप्रत्यक्ष अर्थात् प्रत्यक्षभिन्न ||8 प्रत्यक्ष सदृश यह पर्युदास अर्थ है कि प्रत्यक्षो न भवति इत्यप्रत्यक्ष अर्थात् सर्वथा प्रत्यक्ष है ही नहीं, यह प्रसज्य प्रतिषेधरूप अर्थ है । यदि 'प्रत्यक्षादत्यः, अप्रत्यक्षः यह पर्युदास प्रतिषेक माना जायगातो ||| अन्यत्व दो पदार्थों के अंदर रहनेवाला धर्म है अर्थात् जहाँपर दो पदार्थ रहते हैं वहींपर यह इससे | अन्य है' ऐसा व्यवहार होता है और उससे प्रत्यक्षसे भिन्न दूसरी वस्तु (आत्मा) का अस्तित्व 'जाना| जाता है इसरीतिसे 'अप्रत्यक्षत्व' हेतु यहां अस्तित्वका ही साधक होनेसे जब उसकी व्यप्ति साध्यरूप नास्तित्वसे विपरीत अस्तित्वके साथ है तब वह विरुद्धहेत्वाभास रहनेके कारण आत्माकी नास्तिता | सिद्ध नहीं कर सकता। यदि प्रसज्य प्रतिषेध माना जायगा तो जिस पदार्थका निषेध किया जाता है उस पदार्थके रहते ही उसका निषेध हो सकता है सर्वथा असत् पदार्थका निषेध नहीं हो सकता। जब आत्माके प्रत्यक्षका निषेध किया जायगा तब उसका किसी न किसी रूपसे प्रत्यक्ष भी मानना पडेगा। इस रूपसे प्रतिषेध्य पदार्थके रहनेपर ही उसका निषेध हो सकता है इस नियमके अनुसार जब आत्मा अस्तिका विषय है तब कथंचित् उसके प्रत्यक्ष रहनेपर अप्रत्यक्षत्व हेतु उसमें नहीं रह सकता इसलिये इस प्रसज्य प्रतिषेधमें भी वह फिर असिद्धहेत्वाभास है । तथा
जो हेतु विपक्षमें भी रहता है वह अनेकांतिक हेत्वाभास माना जाता है। अप्रत्यक्षत्व हेतु असत् स्वरूप शशशृंग आदि विपक्षमें भी विद्यमान है क्योंकि उनका प्रत्यक्षन होनेसे उन्हें अप्रत्यक्ष माना गया है
अर्थात्-पर्युदास और प्रसजके मेदसे नञ् समास दो प्रकारका है जहाँपर अपने समान वस्तुका ग्रहण होता है वहां पर्युदास नय मानी जाती है और जहापर सर्वथा प्रतिषेध अर्थ होता है वहां प्रसज्य नय मानी जाती है। ,
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