Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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पाय
भाषा
आत्माके और कोई पदार्थ नहीं हो सकता इसलिये उस फलसे आत्माका अस्तित्व अबाधित है। तरा PI
है वार्तिकमें जो ग्रहण शब्द है उसका अर्थ-जिनकी उत्पचि पूर्वकालमें संचय किये गये कर्मों के आधीन है हा है। भिन्न भिन्न स्वभावोंकी सामर्थ्यके अनुसार जिनका भेद है और जो क्रमसे रूप रस गंध स्पर्श और | शब्दको ग्रहण करनेवाली हैं ऐसी चक्षु रसना प्राण स्पर्शन और श्रोत्र ये पांच इंद्रियां हैं। इन इंद्रियों के ||
संबंधसे जायमान ज्ञानका नाम विज्ञान है तथा आत्माके स्वभावस्थानोंका जानना और विषयोंका ग्रहण BI करना यह यहां असंभवि फल लिया गया है। यह असंभवि फल चैतन्यस्वरूप है इसका कारण चेतन ६ और नित्य पदार्थ ही हो सकता है अचेतन और क्षणिक पदार्थ नहीं । इंद्रियां अचेतन और क्षणिक टू पदार्थ मानी गई हैं इसलिये वे उस फलकी कारण नहीं हो सकती। विज्ञान भी उसं फलका कारण नहीं हूँ| हो सकता क्योंकि उसको एक ही पदार्थका ग्रहण करनेवाला माना है तथा उत्पचिके वाद ही नष्ट हो । है|| जानेके कारण वह क्षणिक भी है । तथा वह फल विना ही किसी कारणके अकस्मात् उत्पन्न हो यह भी || II
नहीं । इसलिये आत्माके स्वभावस्थानों के ज्ञान और विषयोंकी प्रतिपत्तिमें कारण इंद्रिय और ज्ञानसे भिन्न कोई पदार्थ है, वस वही आत्मा है। इस रूपसे आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि निर्वाध है। और भी यह बात है कि
___ अस्मदात्मास्तित्वप्रत्ययस्य सर्वविकल्पेष्विष्टसिद्धेः ॥२०॥ 'आत्मा है' यह जो हमारी प्रतीति है वह चाहे संशयस्वरूप हो चाहे अनध्यवसायस्वरूप हो चाहे || * विपर्ययस्वरूप हो वा सम्यक्स्वरूप हो किसी भी विकल्पस्वरूप हो सब विकल्पोंमें हमारे इष्ट आत्माकी ||
सिद्धि निर्वाध है और वह इसप्रकार है
AAAACHAKREGA
SHARASISA
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