Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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यदि यही माना जायगा तो यह भी विपरीत और परको आनिष्ट कल्पना की जा सकती है कि दूध 5 | आदि पदार्थ ही दूध आदि पदार्थोंके साथ उपयुक्त होते हैं, जीव अपने ज्ञानस्वरूपसे उपयुक्त नहीं होता। अध्फ
६ इसरीतिसे अभिन्न रहनेपर भी यदि एक जगह उपयोगकी कल्पना इष्ट और निर्दोष मानी जायगीतो । ९६॥ दूसरी जगह अनिष्ट और सदोष भी उसकी कल्पना जवरन इष्ट और ठीक माननी होगी तथा बलवान हू
| युक्तिके अभावमें क्षीर आदिमें उपयोगकी कल्पना हो जानेसे और जीवमें उसका प्रतिषेध होई | जानेसे अनिष्ट पदार्थ सिद्ध होगा। सारार्थ-यह है कि उपयोग शब्दका अर्थ संबंधित होनेका है। जो पदार्थ आपसमें सर्वथा भिन्न होते हैं उन्हींके अंदर उपयोगका व्यवहार हो सकता है सर्वथा अभिन्न । पदार्थोंमें नहीं। आत्मा और ज्ञान आदि पदार्थ सर्वथा अभिन्न हैं इसलिए उनमें उपयोगका व्यवहार । नहीं हो सकता ? सो ठीक नहीं । जहांपर सर्वथा भेद है वहांपर उपयोगका व्यवहार नहीं हो सकता । जिसतरह आकाश रूप आदि गुणोंसे सर्वथा भिन्न है इसलिए 'आकाश रूप आदि गुणोंसे उपयुक्त है। यह व्यवहार नहीं होता किंतु जहांपर कथंचित् अभेद है वहींपर उपयोगका व्यवहार होता है। आत्मा ।
और ज्ञानका आपसमें अभेद संबंध है इसलिए 'आत्मा ज्ञान आदिसे उपयुक्त हैं' यह व्यवहार निरापद है। तथा दूध दूधस्वरूप है इसलिए अपने स्वरूपसे वह उपयुक्त नहीं हो सकता' यह जो कहा गया था । वह भी ठीक नहीं क्योंकि अभेद संबंध रहनेसे वहांपर भी उपयोगका व्यवहार है और वह इसप्रकार है
गाय भैंस आदि दूधवाले जीवों द्वारा खाए गए तृण जल आदि पदार्थ दूषस्वरूप परिणत हो । | जाते हैं यह सर्व सम्मत बात है। वहांपर तृण जल आदि कारणोंके द्वारा जिससमय दूध अपने दूधस्वरूप परिणामके सन्मुख होता है उसीसमयसे उसका दूध नाम पड जाता हैं एवं दूधस्वरूप परिणमन "
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