Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
भाषा
हूँ भिन्न अर्थ है इसलिये मिथ्यादर्शनमें अदर्शनका अंतर्भाव नहीं हो सकता तथा जब अदर्शनका ही 15 स०रा० अभाव नहीं हो सकता तब निद्रानिद्रा निद्रा आदिका अंतर्भाव हो ही नहीं सकता इसलिये मिथ्या-18
* दर्शनमें अदर्शन आदिका अंतर्भाव कहना अयुक्त है । सो ठीक नहीं । जहाँपर सामान्यका निदर्शन है ५५१ किया जाता है वहांपर विशेषोंका ग्रहण हो जाता है । अदर्शन शब्द सामान्य अर्थका वाचक है उसका *
- एक विशेष अर्थ-जीवादि पदार्थोंका यथार्थ रूपसे श्रद्धान न करना, यह भी है और दूसरा विशेष |" 9 अर्थ-'नहीं देखना' यह भी है इसरीतिसे अप्रतिपति-नहीं देखना और मिथ्यादर्शन इन दोनों ही 4 विशेष अर्थों का वाचक जब अदर्शन शब्द है तब मिथ्यादर्शनके कहनेसे अदर्शनका ग्रहण हो सकता| * तथा अदर्शनके समान निद्रा आदिका भी ग्रहण हो सकता है इसलिये औदयिक भावोंमें पृथक् रूपसे | हैं उनको गिनानेकी कोई आवश्यकता नहीं।
लिंगग्रहणे हास्यरत्याद्यतर्भावः सहचारित्वात ॥१०॥ जिसप्रकार पर्वतके उल्लेख करनेसे नारदका और नारदके उल्लेख करनेसे पर्वतका ग्रहण हो जाता है क्योंकि दोनोंका आपसमें सहचरित संबंध है कभी भी उनका जुदा जुदा रहना नहीं माना गया। - उसीप्रकार नोकषाय वेदनीयके भेद हास्य रति आदि, लिंगके साथ ही प्रतिपादित हैं इसलिये साहचर्य 18 क संबन्धसे लिंगके उल्लेख रहने पर उनका भी ग्रहण किया जा सकता है। इसरीतिसे जब सूत्रमें लिंग हूँ शब्दका ग्रहण रहनेसे हास्य आदिका उसीमें अंतर्भाव हो जाता है तब उनके पृथक् रूपसे औदयिकहूँ # भावमें नाम गिनानेकी कोई आवश्यकता नहीं। गतिग्रहणमघात्युपलक्षणं ॥११॥
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