Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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जिसतरह 'काकेभ्यो रक्षता सर्पि' काकोंसे धोकी रक्षा करो यहाँपर काक शब्द उपलक्षण माना है और उस उपलक्षण माननेसे जितने भी जीव घोके विनाशक हों उन सबसे घीकी रक्षा करो यह उस है वाक्यका भाव है उसीप्रकार सूत्रमें जो गति शब्द है वह भी अघाति कर्मोंका उपलक्षण है । उसके उपलक्षण होनेसे अघातिया कौके उदयसे जो भी उत्पन्न होनेवाले भाव हैं उन सबका गति शब्दसे ग्रहण है इसलिये नाम कर्मके उदयसे होनेवाले जाति आदि औदयिकभाव वेदनीय कर्मके उदयसे होनेवाले सुख और दुःख रूप औदयिकभाव, आयुकर्मके उदयसे होनेवाला भवधारण रूप भाव और है गोत्रकर्मके उदयसे होनेवाले नीचगोत्र ऊंचगोत्ररूप भाव सबोंका गतिमें अंतर्भाव है । इसरीतिसे जब हूँ जीवविपाकी कर्मोंके उदयसे होनेवाले अदर्शन आदि आत्माके औदयिक भावोंका मिथ्यादर्शन । आदिमें अंतर्भाव युक्तिसिद्ध है सब अदर्शन आदि औदयिक भावोंका सूत्रमें उल्लेख न रहने पर सूत्रके है बनानेमें कमी समझी जायगी यह शंका निर्मूल होगई।
यहाँपर द्विनवाष्टादशेत्यादि सूत्रसे यथाक्रम शब्दकी अनुवृत्ति आ रही है । उसके बलसे गति चार प्रकारकी है। कषाय चार प्रकारके हैं । लिंग तीन हैं इत्यादि भानुपूर्वी क्रमसे अर्थकी प्रतीति हो जाती है इसलिये गतिकषायेत्यादि सूत्रमें यथाक्रम' शब्दके कहनेकी कुछ आवश्यकता नहीं ॥६॥
पारिणामिक भावको तीन प्रकारका कह आये हैं। सूत्रकार अब उसके तीनों भेदोंको भिन्न भिन्न रूपसे गिनाते हैं
___ जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥७॥ सूत्रार्थ-जीवत्व भव्यत्व और अभव्यत्त्व ये तीन भेद पारिणामिक भावके हैं।
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