Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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व०रा०
|| आदि भी औदयिक और पारिणामिक दोनों स्वरूप है तथा जिसतरह केवल क्षायिकभावके भेद जुदेर
माने हैं और औपशमिक भावके जुदे माने हैं उसीप्रकार केवल औदयिक भावके इक्कीस भेद और अध्याय भाषा ||8/
पारिणामिक भावके तीन भेद हैं यह कहा जा सकता है। इसरीतिसे गति आदि भी पारिणामिकभाव | ५६९
कहे जा सकते हैं ? सो ठीक नहीं । पारिणामिक यहांपर परिणामका अर्थ स्वभाव है। जो भाव वस्तुका | स्वभाव स्वरूप हो वह पारिणामिकभाव है । इसरीतिसे पारिणामिक यह अन्वर्थ संज्ञा है गति आदि ।
भावः जीवके स्वभाव स्वरूप नहीं क्योंकि उनकी उत्पचि में नाम आदि कर्मोंका उदय कारण है इसलिये KI वे पारिणामिक भाव नहीं हो सकते । जीवत्व आदिकी उत्पत्ति में कर्मों के उदय आदिकी कोई अपेक्षा नहीं इसलिये वे पारिणामिक भाव हैं । तथा
जिसतरह ज्ञान आदि क्षायोपशमिक भाव है इसलिये उनका क्षायोपशमिक नामसे उल्लेख किया। गया है उसीप्रकार यदि गति जाति आदि भी मिले हुए औदयिक पारिणामिक स्वरूप होते तो उनका
भी औदयिक पारिणामिक नामसे उल्लेख किया जाता परंतु वैसा किया नहीं गया इसलिये मिले हुए । Bाक्षायोपशमिक भाव ज्ञान आदिके समान मिले हए औदयिक पारिणामिक स्वरूप गति जाति आदि | भाव नहीं कहे जा सकते । तथा और भी यह सर्वोच्च उत्तर है कि
पारिणामिक; स्वभाव भाव होनेसे कभी नष्ट नहीं हो सकता। यदि गति आदि भावोंको पारिणामिक | भाव मान लिया जायगा तो फिर मोक्ष ही न प्राप्त हो सकेगी क्योंकि जहां गति जाति आदिका संबंध || है वह संसार कहा जाता है। पारिणामिक भाव मानने पर गति आदिका संबंध आत्मासे जुदा हो नहीं | सकता इसलिये सदा जीवका संसार ही बना रहेगा इसरीतिसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो चुकी है।
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REGISTRALBAUGHTER
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