Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अम्मान
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अर्थात-जिसतरह सूर्यको किरणें अंधकारको तितर वितर कर देती हैं उसीपकार मंत्रि सुमंत्रके ||३|| || वचनोंको तितर वितर करनेवाले राजा दशरथने उत्तर दिया। भाई सुमंत्र! तेरे नामका अर्थ तो अच्छी || ६ तरह विचार करनेवाला है परंतु तूने जो इससमय मिथ्या वात कही है उससे तेरे नामका अर्थ भी मुझे ||
मिथ्या जान पडता है । भाई ! जिसप्रकार' अहं सुखी अहं दुःखी' इस स्वसंवेदन प्रत्यक्षमें सुख दुःख ई का भान विना किसी वाधक प्रमाणके होता है उसीप्रकार अपने शरीरमें 'अहं अहं' इस आकारसे आत्माका भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है कोई भी इसका वाधक प्रमाण नहीं इसरीतिसे अपनेको स्वयं से अपने शरीरमें आत्माका अस्तित्व जान पडता है और दूमरेके शरीरमें बुद्धि पूर्वक क्रियाओंके देखनेसे अर्थात् 'विना आत्माके रहते शरीरसे ऐसी क्रियायें नहीं हो सकी इस अनुमान प्रमाणसे उसे जान लिया जाता है। देखो उत्पन्न होते ही मनुष्य गाय भैंस आदिका बच्चा दूध पीने लग जाता है उससमय | | सिवाय पूर्वजन्मके संस्कारके उसे दूध पीनेकी रीति बतलानेवाला कोई नहीं। यदि उसकी आत्मा इस
जन्मके पहिले न होती तो वह एकदम नये कामको कभी नहीं कर सकता था इसलिये विद्वान मनुष्य है। RI को यह कभी न कहना चाहिये कि जीव अपूर्व जन्मा है पहिले इसका अस्तित्व ही न था। जिसप्रकार|2||
पैनी तलवार मूर्तिक पदार्थ है चाहे कितने भी प्रयत्नसे घुमाई जाय अमूर्तिक आकाशके खंड वह नहीं है। || कर सकती उसीप्रकार यह जीव एक ज्ञानके ही द्वारा जाना जाता है और अमूर्त है इसलिये मूर्तिक ||
नेत्र इंद्रिय कभी इसे नहीं देख सकती। पृथ्वी आदि भूतोंके विलक्षण संयोगसे आत्माकी उत्पचि || | होती है यह कहना व्यभिचारदोष प्रस्त है क्योंकि जिस बटलोहमें पवनसे जलती हुई अग्निसे तपा हुआ जल भरा है वहांपर भी चारों भूतोंका समुदाय है इसलिये वहां भी चेतनकी उत्पचि होनी
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