Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
। चाहिये परंतु दीख नहीं पडती इसलिये पृथ्वी आदि भूत चेतनकी उत्पचिमें कारण नहीं हो सकते ।। 5 भाई ! तुमने जो गुड अन्न आदिके संबंधसे होनेवाली अचेतन मद शक्तिका दृष्टांत चेतनकी उत्पचिमें 8 अध्याय 3 दिया है उसे तुम्ही विचारो कि क्या वह दृष्टांत विषम होनेसे यहां उपयुक्त है ? कभी नहीं । इसलिये अब
यह अवश्य मानना होगाकि यह आत्मा अमूर्तिक आविनाशी कर्ता भोक्ता सचेतन और एक पदार्थ है। । तथा अपने स्वरूपसे सर्वथा विपरीत शरीरसे सर्वथा पृथक् है । इस आत्माका ऊर्धगमन स्वभाव है है परंतु स्वभावसे ऊपरको जानेवाली अग्निकी शिखा जिसप्रकार प्रचंड पवनके वेगसे इधर उधर झुकरा
जाती है उसीप्रकार कर्मके प्रबलवेगसे यह जीव भी खेदकारी अनेक प्रकारका गमन करता है। इस १ लिये जिसप्रकार अमूल्य मणिपर लगेहुए कीचडको हरएक व्यक्ति जलसे धोकर साफ करदेता है उसी
प्रकार मेरी आत्मापर जो काँकी कालिमा लगी हुई है उसे अवश्य ही अब मैं प्रचंड तपोंसे सर्वथा , भिन्नं करूंगा। सर्ग ४ पृष्ठ २९ ।। ___ अनादिकालसे कर्मबंधके कारण कर्म और आत्माका एकम एक रहनेपर भी लक्षणके भेदसे भेद माना गया है परंतु अभीतक आत्माका क्या लक्षण है ? यह नहीं प्रतिपादन किया गया इसलिये सूत्रकार ' अब अत्माका लक्षण बतलाते हैं--
उपयोगोलक्षणं ॥८॥ अर्थ-चैतन्यके साथ रहनेवाले आत्माके परिणामका नाम उपयोग है वह उपयोग ही जीवका लक्षण ६ है। वार्तिककार उपयोग शब्दका स्पष्ट अर्थ करते हैं--
वाह्याभ्यंतरहेतुद्वयसन्निधाने यथासंभवमुपलब्धुश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः॥१॥
AKASGEECHNISHASKAR
HSHAR