Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
छ
अध्याय
चैतन्यको सुख दुःख मोहस्वरूप माना गया है। उसके अनुविधान करनेवाले सुखदुःख क्रोध आदि M. ही परिणाम होंगे इसलिये यहांपर-इन्हीं परिणामोंको उपयोग मानना पडेगा परंतु उपयोगके भेद आगे
|| ज्ञान और दर्शन माने हैं इसलिये यहांपर पूर्वापर विरोध जान पडता है ? सो ठीक नहीं । चैतन्य आत्मा १९३३ का एक सामान्य धर्म है। पुद्गल आदि द्रव्योंमें चैतन्यका अभाव है इसलिये वे जीव नहीं कहे जाते
|| तथा उस चैतन्यके ज्ञान दर्शन आदि भेद हैं इसरीतिसे चैतन्य शब्द ज्ञान दर्शन आदिके समुदायका || BI वाचक है। सुख आदि उसी समुदायके अवयव हैं इसलिये कहीं कहीं पर उन्हें भी चैतन्य कहनेमें कोई ॥६॥ |६|| हानि नहीं क्योंकि यह नियम है कि जो शब्द समुदायरूप अर्थका वाचक है वह अवयव स्वरूप अर्थ || || को भी कहता है। यहांपर चैतन्य शब्द ज्ञान दर्शन आदि समुदायको कहता है वही अवयव स्वरूप सुखद
आदिका भी वाचक है । इसरीतिसे जब सुख आदि तथा ज्ञान दर्शन सब ही चैतन्यके भेद हैं तब सुख
दुःख क्रोध आदि स्वरूप ही उपयोग पदार्थ है ज्ञान दर्शनस्वरूप नहीं, यह कहना बाधित है। उपयोगके || ज्ञान और दर्शन भेद आगे कहे जायगे। सूत्रमें जो लक्षण शब्द है उसका अर्थ वार्तिककार बतलाते हैं
परस्पर व्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणं ॥२॥ IS बंध स्वरूप परिणामके द्वारा आपसमें एक दूसरेके अनुपविष्ट हो जानेसे एकम एक रहनेपर भी ६ जिसके द्वारा भिन्नता जानी जाय वह लक्षण कहा जाता है जिसतरह बंघरूप परिणामके द्वारा सोना
१। 'यतिकीर्णवस्तुच्यात्तिहेतुर्लक्षणं' यथानेरौष्ण्यं । परस्पर मिली हुई वस्तुओंमेंसे किसी एक वस्तुको भिन्न करनेमें जो कारण हो उसका नाम लक्षण है जिसप्रकार अनि उष्ण है यहांपर पदार्थसमूहसे अमिको जुदा करनेवाला उष्णत्व है इसलिये वह लक्षण है।
७५
ARCAMERABACARBABA
KABECASIA