Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
जहांपर औपशमिक भाव भी छोड दिया जाता है । प्रत्येक संयोगमें क्षायिकभावका प्रधानतासे • ग्रहण रहता है और क्षायोपशमिक और पारिणामिकभावों में एक एक छूटता जाता है वहांपर तीसरा
| द्विभाव संयोगी भेद होता है और उसके दो भंग माने हैं उनमें क्षायिकक्षायोपशमिकजीवभाव नामका | १७५|| पहिला भंग है जिसतरह क्षायिक सम्यग्दृष्टि श्रुतज्ञानी।क्षायिक पारिणामिकजीवभाव नामका दूसरा भंग
है जिसतरह क्षीणकषायी भव्य। या तथा जहाँपर क्षायिक भावका भी परित्याग हो जाता है केवल क्षायोपशमिक पारिणामिक रूप
संयोग रह जाता है वहांपर एक ही क्षायोपशमिक पारिणामिक सान्निपातिक जीवभाव नामका भंग ई होता है जिसतरह अवधिज्ञानी जीव है यहांपर अवधिज्ञानी जीवका क्षायोपशर्मिक और पारिणामिक || सान्निपातिक पारिणाम है । इसप्रकार ये द्विभाव संयोगी भंग मिलकर दश हैं।
तीन भावोंका आपसमें संयोग रहनेपर भी सानिपातिक भावके दश भेद माने हैं। जहांपर औद- 1 Fl यिक और औपशमिक दोनों भावोंका प्रत्येक संयोगमें प्रधानरूपसे ग्रहण रहता है और क्षायिक आदि । । तीन भावों में एक एक भाव ग्रहण किया जाता है वहांपर पहिला त्रिभाव संयोगी भेद माना जाता है ||६||
और उसके तीन भंग हैं उनमें औदयिकौपशमिक क्षायिक सान्निपातिक जीव भाव नामका पहिला भंग ॥ है जिसतरह उपशांत मोह मनुष्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि । औदयिकोपशमिकक्षायोपशमिकसानिपातिक । जीव भाव नामका दूसरा भंग है जिसतरह उपशांतक्रोधी मनुष्य वाग्योगी है और औदयिकापशमिक-है। - पारिणामिकसानिपातिक जीव भाव नामका तीसरा भंग है जिसतरह उपशांत मानवाला मनुष्य जीव । जहांपर औपशमिक भावका परित्यागकर औदयिक और क्षायिक भावका ग्रहण हो तथा क्षायोपश
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