Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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औपशमिक आदि जिन भावोंका ऊपर उल्लेख किया गया है वे सब भाव अपनी उत्पचिमें कर्मों । 3 के बंध उदय और निर्जराकी अपेक्षा रखते हैं इसलिये वे सब पुद्गल द्रव्योंकी पर्याय हैं जो कि आत्म-9 अध्यान
तत्त्वसे सर्वथा वीपरीत हैं अतः औपशमिक आदि भाव जीवके तत्व नहीं कहे जा सकते ? सो ठीक नहीं। जिससमय आत्मा पुद्लद्रव्यकी कर्मरूप विशेष शक्तिके आधिन हो जाता है उससमय वह पुद्- हूँ
गलके रंगमें रंग जानेके कारण जिस जिप्त पुद्गलके निमिचसे वह जिस परिणाम स्वरूप परिणत होता हूँ है है उससमय वह उसी परिणाम स्वरूप हो जाता है। यद्यपि औपशमिक आदि भाव कोंके बंध आदि ।
जनित हैं परंतु आत्मा औपशमिक आदि रूप पारेणत होता है इसलिये वे आत्माके ही भाव हैं। कहा भी है___ परिणमदि जेण दध्वं तकालं तम्मयचि पण्णचं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयवो ॥१॥ ___ परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयमिति प्रज्ञप्तं । तस्माद्धर्मपरिणत आत्मा धर्मो ज्ञातव्यः॥१॥ ____ अर्थात् जिसकालमें जो द्रव्य जिस परिणामसे परिणत होता है उस कालमें वह द्रव्य उसी परिणाम स्वरूप होता है यह माना गया है इसलिये आत्मा जिस परिणामसे परिणत होता है उसी परिणामस्वरूप, वह कहा जाता है।
वह आत्माका परिणाम अन्यद्रव्यसे असाधारण है-सिवाय आत्माके अन्य किसी भी पदार्थका वैसा परिणाम नहीं होता इसलिये वह आत्मस्वरूप कहा जाता है । औपशमिक आदि भाव सिवाय 8 आत्माके अन्य द्रव्यके परिणाम नहीं, इसलिये उन्हें आत्मतत्व मानना निरापद है । शंका
अमूर्तत्वादभिभवानुपपत्तिरिति चेन्न तद्विशेषसामोपलब्धेश्चैतन्यवत् ॥ २६ ॥
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