Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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यदि यह वात कही जायगी कि सानिपातिक भाव है उसका अपलाप नहीं किया जा सकता तब , सूत्रमें जो मिश्रभावका उल्लेख किया गया है उसमें उसका अंतर्भाव है पृथक् रूपसे उसके उल्लेख करने - अध्याय ६ की कोई आवश्यकता नहीं । यदि यहांपर यह शंका की जाय कि मिश्र शब्द तो क्षायोपशमिक भावके ( ग्रहणार्थ है.उससे सान्निपातिक भावका ग्रहण नहीं हो सकता ? सो भी ठीक नहीं।
'औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रो जीवस्य स्वतत्वमौदयिकपारिणामिको च' ऐसा ही सूत्र उपयुक्त था फिर 'मिश्रश्च' यहाँपर जो अधिक च शब्दका उल्लेख है वह 'क्षायोपशमिक और सानिपातिक दोनोंका मिश्र शब्दसे ग्रहण है, यह घोतित करता है इसलिये जब मिश्र शब्दसे सान्निपातिक भावका प्रतिपादन हो जाता है तब पृथकरूपसे उसके कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं। शंका
यदि संसारमें सान्निपातिक भाव है तब ऊपर जो यह कहा गया है कि 'सान्निपातिक भावका अभाव है यह कहना अयुक्त है। यदि कहा जायगा कि सान्निपातिक भाव नहीं है तब आगममें उसका प्रतिपादन क्यों किया गया अथवा मिश्र शब्दसे उसका ग्रहण क्यों माना गया। इसलिये उसकी सत्ता भी मानना और अभाव भी कहना दोनों वातें विरुद्ध हैं ? सो ठीक नहीं। वास्तवमें सान्निपातिक कोई
छठा भाव नहीं है इसलिये तो उसका अभाव कहा गया है औपशामिक आदि भावोंका आपसमें संयोग * होने पर कुछ भावके भेद माने हैं एवं उन्हें सानिपातिक भाव मान लिया है इसलिये संयोगजनित 2 भंगोंकी अपेक्षा वह है इसलिये उसका आगममें उल्लेख अथवा मिश्र शब्दसे ग्रहण माना है। इन दोनों
पक्षोंमें जिससमय सान्निपातिक भावका अभाव है यह पक्ष है उससमय तो सूत्रमें "मिश्रश्च' यह जो चकार है उससे मिश्र शब्दका अर्थ क्षय उपशम स्वरूप अर्थात क्षायोपशमिक भाव द्योतित होता है और
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