Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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SAASHARASIRCLEASE
पर पदार्थकी सामर्थ्यको हरण कर लेना भोक्तृत्व शब्दका अर्थ प्रतिपादन किया गया है परंतु आत्माके । अंदर तो भोगांतराय कर्मको क्षयोपशम रूप विशिष्ट शक्ति मौजूद है। उसके द्वारा वह घी दूध आहार आदिकी शक्तिको खींच सकता है । तथा वीयर्यातराय कर्मकी क्षयोपशमरूप शक्तिके द्वारा घी दूधको ६ पचा सकता है इसलिये उसके अंदर तो भोक्तृत्व धर्म कहा जा सकता है परंतु विष लवण आदि पदा-टू थोंमें तो भोगांतराय कर्मकी क्षयोपशमरूप शक्ति सिद्ध हो नहीं सकती इसलिये उनमें भोक्तत्व धर्म है सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये सिवाय आत्माके जब किसी पदार्थमें भोक्तृत्व धर्म सिद्ध नहीं हो सकता है
तथा आत्मामें जो भोक्तृत्व धर्म है वह भोगांतराय कर्मके क्षयोपशमसे जायमान होनेके कारण पारित ४ णामिक नहीं कहा जा सकता तब सब पदार्थोंमें भोक्तृत्व धर्म मानकर उसे पारिणामिक कहनाअयुक्त है। 5 सो ठीक नहीं। जिसतरह सूर्यका प्रताप प्रतिनियत है उसकी उत्पचिमें किसी भी अन्य पदार्थको अंश हूँ मात्र भी अपेक्षा नहीं रहती उसीप्रकार संसारमें जितने भी पदार्थ हैं उन सबकी शक्ति प्रतिनियत है है और वह अपनी उत्पचिमें किसीकी अपेक्षा न रखनेके कारण स्वाभाविक हैं । विष लवण आदि पदार्थों है में भी पर पदार्थ-कोदों अन्न काष्ठ आदिको सामर्थ्यको ग्रहण करनेकी विशिष्ट शक्ति प्रतिनियत और है | स्वाभाविक है इसलिये उनका परपदार्थों की शक्तिको ग्रहण कर उन्हें अपने स्वरूप परिणमावना निर्वाध है | है। इसरीतिसे जब विष लवण आदिमें भी भोक्तृत्व धर्मका होना सिद्ध है और विष आदिके अंदर
रहनेवाला भोक्तृत्व अपनी उत्पचिमें कर्मोंके उदय आदिकी अपेक्षा नहीं रखता इसलिये पारिणामिक 8| भी है तब उसे आत्माका ही धर्म बताना वा उसे पारिणामिक भाव न मानना अयुक्त है।
विशेष-वास्तवमें तो आत्मामें भी घी दूध आहार आदिकी सामर्थ्यका ग्रहण करना रूप भोक्तृत्व