Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्यान
३०रा० भाषा
18 भोक्तृत्व धर्म है । अचेतन भी विष पदार्थ अपनी विशिष्ट शक्तिसे कोदों आदि द्रव्योंकी सामर्थ्य को 8 || हरण कर अपने स्वरूप परिणमा लेता है इसलिये वह भोक्ता है और उसके अन्दर भोक्तृत्व धर्म है। 16 | तथा लवण आदि द्रव्य अपनी सामर्थ्यकी अधिकतासे काष्ठ पत्थर आदि पदार्थों को लवण स्वरूप हू || परिणमा देते हैं इसलिये वे भोक्ता हैं और उनके अंदर भोक्तृत्वधर्म है इसीप्रकार सब पदार्थों में अपनी || | अपनी योग्यताके अनुसार भोक्तृत्व धर्म समझ लेना चाहिये इसरीतिसे हरएक पदार्थमें रहनेके कारण का भोक्तृत्व ( भोग) साधारण भाव है और अपने होने में वह किसी भी कर्मके उदय आदिकी अपेक्षा नहीं जा रखता-अनादिकालसे हरएक पदार्थका वैसा स्वभाव चला आया है इसलिये वह पारिणामिकभाव है। 18|| यहाँपर इतना विशेष समझ लेना चाहिये कि हरएक पदार्थमें रहनेवाला भोगसामान्य पारिणामिकभाव |
|| है किंतु आत्माका जो विशेष भोक्तृत्व धर्म है वह पारिणामिक नहीं किंतु वह भोगांतराय कर्मके क्षयोप | है शमसे होता है इसलिये क्षायोपशमिकभाव है आत्माके सिवाय अन्य पदार्थके साथ कर्मोंका संबंध हो | || नहीं सकता इसलिये सामान्यसे भोक्तृत्व धर्म पारिणामिक है ।
वीर्यांतराय कर्मका क्षयोपशम और अंगोपांग नामक नाम कर्मके बलसें आत्मा शुभ अशुभ कर्मों के AII फलोंके उपभोगने में समर्थ होता है। शुभ और अशुभ कर्मोंके फलोंका उपभोगना ही आत्माका उपभो|| क्तृत्व (उपभोग) धर्म है । यह उपभोक्तृत्व धर्म साधारण नहीं क्योंकि सिवाय आत्माके किसी भी। ६|| अन्य पदार्थके अंदर यह धर्म नहीं रहता । तथा अपनी उत्पचिमें कर्मोंके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखता 18 ॐ है इसलिये पारिणामिक भाव भी नहीं । शंका
ऊपर भोक्तृत्व सामान्यको साधारण और पारिणामिक बतलाया है और शक्तिकी अधिकतासे
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