Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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TOU01 भाषा
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|| भाव है पारिणामिक भाव नहीं । यद्यपि पुण्य और पापका कर्तृत सिवाय जीवके और किसी भी द्रव्यमें
नहीं इसलिये असाधारण होनेसे उनके विषयमें यह कहा जा सकता है कि जीवत्व आदि जीवके असा|| धारण भावों में उसकी गणना करनी चाहिये परंतु उसके पुण्य और पापकी उत्पत्ति कर्मोंके उदय और
क्षायोपशमके आधीन है इसलिये पारिणामिक भाव न होनेके कारण उसकी जीवत्व आदि-जीवके पारिणामिक भावोंके साथ गणना नहीं हो सकती। यदि यहांपर यह शंका की जाय कि
मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद कषाय योग पुण्य और पापको बंधका कारण बताया गया है। उनमें | मिथ्यादर्शनभावकी उत्पत्ति दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे होती है इसलिये अपनी उत्पत्ति में कर्मके उदय 18/ की अपेक्षा रखनेके कारण वह पारिणामिकभाव नहीं हो सकता। अविरति प्रमाद और कषायोंकी
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___ अर्थात्-वीणेतराय कर्मके क्षयोपशमरहनेपर औदारिक औदारिककायमिश्र, वैक्रियिक वैक्रयिकमिश्र, माहारक आहारकमिश्र और
कार्माण इन सात काय वर्गणाओंमें अन्यतम किसो वर्गणाकी अपेक्षासे जो आत्माके प्रदेशोंका इलन चलन होना है उसका नाम काय || योग है। शरीर नाम कर्मके उदयसे होनेवाली वचन वर्गणाके आलंबन रहनेपर वीर्यातरायकर्म और मत्यक्षरादि आवरणोंकी क्षायो। पशम रूप वागलब्धिके सन्निधानमें वचन परिणामके अभिमुख आत्माके प्रदेशोंका जो हलन चलन होना है वह वाग्योग है। तथा जहांपर वीर्यातराय और नो इन्द्रियावरण कर्मका क्षायोपशमरूप मनोलब्धिका सन्निधान तो अंतरंग कारण हो और मनोवर्गणाका
आलंबन वाह्य कारण हो वहां पर मनरूप परिणामके अभिमुख पात्माका जो हलन चलन होना है वह मनोयोग है। सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ Sll संख्या १८३।
१ सतावेदनीय तिर्यग मनुष्य देव आयु, उच्चगोत्र आदि अडसठि प्रकृति पुण्यप्रकृति हैं । और चार घातिया कौकी सैंतालिस है प्रकृति, असातावेदनीय नरकायु नीचगोत्र और नामकर्मकी पचास प्रकृति इसप्रकार ये सौ पाप प्रकृति हैं। ये पुण्य और पाप दोनों
| प्रकारकी प्रकृतियां अपने अपने कर्मों के उदय और क्षयोपशमसे होती हैं।
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