Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
HeKHASR962%
रूप ये दो भेद माने हैं वे दोनों ही असर्वगत हैं और दोनों के अंदर असर्वगतत्व धर्म रहता है, इसलिये आकाशद्रव्यकी भेदविवक्षाके आधीन यहां असर्वगतत्व धर्मको साधारण माना गया है । धर्म अध्या अधर्म आदि द्रव्योंको परिमित असंख्यात प्रदेशी कहा गया है वहांपर यह शंका हो सकती है कि असं ख्यात प्रदेशों को परिमित अर्थात् परिमाण किये बिना कैसे रहा जा सकता है। परंतु हम छद्मस्थ-अल्पके ज्ञानी भले ही उनका परिमाण न कर सकें परंतु केवलज्ञानी कर सकते हैं इसलिये उनके परिमितपनेका हु है कथन यहां केवलज्ञानकी अपेक्षा समझ लेना चाहिये।
कर्मके आधीन जैसा हाथी वा चिउंटी आदिका शरीर मिले उसीके अनुकूल आत्माके प्रदेशोंका होना कोपाचशरीर प्रमाणानुविधायित्व है। यह धर्म यद्यपि जीव द्रव्यके सिवाय अन्य किसी भी पदार्थ में नहीं रहता इसलिये असाधारण है तथापिं अपनी उत्पचिमें कोंकी अपेक्षा रखता है इसलिये पारि-3 णामिक नहीं।
अनादिकालसे अपने अपने संतानरूपी बंधनोंसे जो बद्धपना है वह अनादिसंततिबंधनबद्धत्व धर्म हूँ कहा जाता है। जीव द्रव्य अनादिकालसे अपने पारिणामिकचैतन्योपयोगस्वरूप परिणामके संतानरूपी है बंधनसे बद्ध है। धर्म द्रव्य गति परिणामके संतानरूपी बंधनसे बद्ध है । अधर्म द्रव्य स्थिति परिणामके है
संतानरूपी बंधनसे बद्ध है। आकाशद्रव्य सबद्रव्योंको अवकाशदान देनेरूप परिणामसंतानके बंधन 1 से बद्ध है। काल द्रव्य वर्तना परिणामिक संतानरूप बंधनसे बद्ध है एवं पुद्गल द्रव्य वर्ण गंध रस स्पर्श
आदि परिणामोंके संतानरूपी बंधनसे बद्ध है इसरीतिसे समस्त ही द्रव्य अपने अपने संतानरूपी बंधनों से बद्ध हैं इसलिये अनादिसंततिबंधनबद्धत्वधर्म सब द्रव्योंमें रहनेवाला होनेसे साधारण है और वह
SCSRIGANWARRIORIESARIES
BARBASIRASHTRA
келем