Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तब 'जीवभव्यामव्यानां भावा, जीव भव्याभव्यत्वानि'यह निर्देश ठीक ही है। यहांपर व प्रत्ययका ६ संबंध जीव आदि प्रत्ययके साथ है इसलिये जीवत्व भव्यत्व अभव्यत्व यह भिन्न भिन्न रूपसे समझ लेना /
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चाहिये।
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द्वितीयगुणग्रहणमा!क्तत्वादितिचेन्न तस्यनयापेक्षत्वात् ॥११॥ एं सासादन नामक द्वितीयगुणस्थानसंबंधी सासादनसम्यग्दृष्टिभावको आगममें पारिणामिक भाव वतहै लाया है उसीको लक्ष्यकर शंकाकार यह शंका करता है कि जब द्वितीयगुणस्थान संबंधी सासादनस-है
म्यग्दृष्टि भावको आगममें पारणामिकभाव बतलाया है तब जीव आदि पारिणामिक भावोंके साथ। उसे भी कहना चाहिये क्योंकि जीव आदिकी तरह कर्मोंकी अपेक्षा रहित वह भी साधारण पारिणामिक भाव है ? सो ठीक नहीं । सासादनसम्यग्दृष्टिभाव अपनी उत्पचिमें मिथ्यात्वकमके उदय क्षय और उपशमकी अपेक्षा नहीं करता इसलिये इस अपेक्षा तो उसे पारणामिक भाव माना है परंतु अपनी उत्पत्ति में अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लाभके उदयकी अपेक्षा रखता है इसलिये वह औदयिकभाव भी माना + गया है इसरीतिसे जब साध्य-किसी एक अपेक्षासे उसका पारिणामिकपना है सर्वथा पारिणामिकपना से नहीं किंतु जीवत्व आदि जो पारिणामिक भावके भेद बताये हैं वे किसी भी अपेक्षा पारिणामिकके * सिवाय अन्यभावके भेद नहीं हो सकते इसलिये सासादनसम्यग्दृष्टिभावकी जीवत्व आदिके साथ गणना नहीं हो सकती। सूत्रमें जो च शब्द है उसका प्रयोजन वार्तिककार बतलाते हैं
अस्तित्वान्यत्वकर्तृत्वभोक्तृत्वपर्यायवत्वासर्वगतत्वानादिसंततिबधनबद्धत्व
प्रदेशवत्वारूपत्वनित्यत्वादिसमुच्चयार्थश्वशब्दः ॥१२॥
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