Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
६|| परंतु यहां इस व्युत्पचि सिद्ध अर्थका आदर न कर रूढिसिद्ध सास्नादिविशिष्ट गाय ही अर्थ लिया |
अध्याव || गया है । जीव शब्दकी भी सिद्धि करते समय तीनों कालसंबंधी उसकी व्युत्पचि की जाती है और उस ||६|| || व्युत्पचिसे जीव शब्दका अर्थ प्राण धारण करनेवाला होता है परंतु यहांपर जीव शब्दका यह व्युत्पत्ति | | सिद्ध अर्थ नहीं लिया गया किंतु रूढ अर्थ चैतन्य ही लिया गया है । उस चैतन्य भावकी प्रकटताके | लिये किसी भी कर्मकी अपेक्षा नहीं पडती इसलिये जीवत्व पारिणामिक ही भाव है। अथवा
चैतन्यमेव वा जीवशब्दस्यार्थः॥६॥ जीव शब्दका अर्थ चैतन्य ही है और अनादिकालसे जीवद्रव्यका उसी रूप होना ही उसमें निमिच || कारण है और कोई कर्म निमित्त कारण नहीं इसलिये जीवत्व पारिणामिक ही भाव है।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामेन भविष्यतीति भव्यः ॥७॥ भविष्यतीति भव्यः जो आगे होनेवाला हो वह भव्य है इस व्युत्पचिके आधार पर भव्य और || अभव्यका प्रायः भविष्यत काल ही विषय है उसीके अनुसार जो आत्मा आगामी कालमें सम्यग्दर्शन || सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप परिणत होनेवाला है वह भव्य है ऐसे अर्थका द्योतन करनेवाली यहां भव्य संज्ञा मानी गई है।
तद्विपरीतोऽभव्यः ॥ ८॥ जो आत्मा कभी भी आगामी कालमें सम्यग्दर्शनादि पर्यायोंसे परिणत होनेवाला न हो वह । अभव्य है । यह जो भव्य और अभव्यका भेद है वह किसी कर्मके आधीन नहीं किंतु वैसी भेदव्यवस्था. जीवके स्वभावके ही आधीन है इसलिये भव्य और अभव्य दोनों भाव पारिमाणिक हैं। शंका
SALEGALLERGROUGUAGENCECRADIBHOSREPRENA
KEECREEGANESSOCHAMECHEMORRHOEASE