Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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PROPEASA
|3|| है ऐसा ओगमका वचन है । परंतु वहांपर कषायोंके उपशांत वा सर्वथा क्षीण हो जानेसे उसके द्वारा अनु- || Dilery परा०६ रंजन हो नहीं सकता इसलिये लेश्या सामान्य औदयिक भाव नहीं कहा जा सकता ?सो ठीक नहीं ।।
मा नैगमनयका एक पूर्वभावप्रज्ञापन भेद माना है और जो बात पहिले थी किंतु वर्तमानमें नहीं है उसका ५४९|| वर्तमानमें होना मान लेना यह उस नयका विषय है। यद्यपि उपर्युक्त तीनों गुणस्थानों में योगोंकी प्रवृति |
|| कषायोंसे अनुरंजित नहीं है तथापि पूर्वभावप्रज्ञापननयकी अपेक्षा जो पहिले योगोंकी प्रवृत्ति कषायों II से अनुरंजित थी वह अब भी है ऐसा उपचारसे मान लिया जाता है इसरीतिसे उपशांत कषाय क्षीण-||
5 कषाय और सयोगकेवलीगुणस्थानोंमें होनेवाली शुक्ललेश्यामें भी जब लेश्याका लक्षण घट जाता है तब 1 कोई दोष नहीं । चौदहवें अयोगकेवलिगुणस्थानमें लेश्याका अभाव है क्योंकि वहांपर योग प्रवृत्ति नहीं ।
|| है। इसलिये अयोग केवलियोंको अलेश्य माना है। शंका--
१। जोगपउत्तोलेस्सा कसाय उदयाणु रंजिया होई ॥ ४८९॥
अयदोत्ति छल्लेस्साओ सुहतियलेन्सा हु देसविरदतिये । तत्तो सुक्का लेस्सा अजोगिठागं अलेस्सं तु ॥ ५३१ ॥ योगप्रवृत्तिलेश्या कषायोदयानुरंजिता भवति ॥ ४८६ ॥ असंयत इति षट् लेश्याः शुभत्रयलेश्या हि देशविरतत्रये ।
ततः शुक्ला लेश्या अयोगिस्थानमलेश्यं तु ॥ ५३१ ॥ कपायोदयसे अनुरंजिन यागोंकी प्रवृत्तिका नाम लेश्या है । उसके छह मेद हैं। उनमें चतुर्थ गुणस्थानपर्यंत छहो लेश्या होती हैं । देशविरत प्रपत्तविरत अप्रमत्तविरत इन तीन गुणस्थानों में तीन शुभ लेश्या ही होती हैं। अपूर्व करणसे लेकर सयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत एक शुक्ललेश्या ही होती है और अयोगकेवली गुणस्थान लेश्यारहित है । (गोम्मटसार जीवकांड)
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