Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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सूत्रमें जो 'द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदाः' यह समस्त पद है वहां पर द्वौ च नव च अष्टादश च एकविंशतिश्व त्रयश्च, 'द्विनवाष्टादशेकविंशतित्रयः' इस इतरेतर द्वंद्व के करनेके बाद, ते भेदा येषां ते 'द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदाः" यह बहुव्रीहि समास समझ लेना चाहिये । शंका
जहां पर तुल्ययोग - समान योग होता है वहीं पर इतरेतर योग नामका द्वंद्वसमास होता है भिन्न योग रहने पर वह नहीं हो सकता । द्वौ च नव च इत्यादि जो ऊपर इतरेतरयोग द्वंद्व माना है वहां पर तुल्ययोग नहीं क्योंकि उपर्युक्त इतरेतर द्वंद्व समासांत पदमें द्वि आदि शब्द संख्येयप्रधान हैं और एकविंशति शब्द संख्यानप्रधान है अर्थात् द्वि आदि शब्द दो आदि संख्याविशिष्ट शब्दों के कहनेवाले हैं और एकविंशति शब्द संख्यावाचक है इसलिये उपर्युक्त जो इतरेतर द्वंद्व माना है वह अयुक्त है ! सो ठीक नहीं। प्रधान भी कभी कभी किसी कारण से गौण हो जाता है जिसतरह राजा प्रधान है परंतु किसी समय वह किसी अवश्यंभावी कारण से मंत्री बन जाता है और मंत्री के कार्यकी फल प्राप्ति होने पर वह अपने
प्रधान मानता है इसी प्रकार यद्यपि द्वि आदि शब्द संख्येयप्रधान हैं तो भी किसी बलवान कारण के उपस्थित हो जानेपर वे भी संख्यानप्रधान अर्थात् संख्यावाचक मान लिये जाते हैं इसलिये जब कारण विशेष से संख्या विशिष्ट शब्दों के वाचक भी द्वि आदि शब्द संख्यावाचक मान लिये जाते हैं तब यहां पर सभी संख्यावाचक शब्द होनेसे तुल्ययोग हो गया फिर उपर्युक्त इतरेतर द्वंद्व समास अयुक्त नहीं कहा जा सकता । परंतु
संख्येयप्रधान द्वि आदि शब्दोंका संरूपानप्रधान बतलाना यह सब तर्कके बलपर है व्याकरणका सिद्धांत ऐसा नहीं क्योंकि व्याकरणका यह वचन है कि - एकादयः प्राविंशतेः संख्येयप्रधाना विंशत्या
अध्याय
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