Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
सम्यक्त्वचारित्रे॥३॥ अर्थ-औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र दो भेद औपशमिक भावके हैं। - सम्यक्त्व और चारित्रका अर्थ पहिले कहा जा चुका है। दोनों भावोंमें औपशमिकपना क्यों है ? इस बातको वार्तिककार बतलाते हैं
___सप्तप्रकृत्युपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वं ॥१॥ मोहनीय कर्मके दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके भेदसे दो भेद हैं । चारित्र मोइनीयके | कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय ये दो भेद हैं। उनमें कषायवेदनीयके अनंतानुबंधी क्रोध मान | माया और लोभ ये चार भेद आर दर्शनमोहनीयके सम्यक्त्व मिथ्यात्व और सम्पग्मिथ्यात्व ये तीन है भेद इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है । शंका
सादि और अनादि दोनों प्रकारके मिथ्यादृष्टि भव्यके औपशमिक सम्यक्त्वका होना बताया | गया है परंतु सदा जिसकी आत्मा काँकी कालिमासे काली रहती है उस अनादि मिथ्यादृष्टिके उक्त | प्रकृतियों का उपशम कैसे हो सकता है ? इस वातका वार्तिककार समाधान देते हैं
काललब्ध्याद्यपेक्षया तदुपशमः॥२॥
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१। जिस कर्मके उदयसे सम्यक्त्व गुणका मूल घात तो हो नहीं परन्तु चल मल अगाढ ये दोष उत्पन्न हो जाय वह सम्यक प्रकृति है । जिस कर्मके उदयसे सम्यग्दर्शनका सर्वथा घातस्वरूप जीवके अतच श्रद्धान हो वह मिथ्यात्व प्रकृति है और जिस कर्मके उदयसे सम्यग्दर्शनके सर्वथा घातस्वरूप मिले हुए परिणाम हों जिनको कि न सम्यक्त्वरूप कह सकें और न मिथ्यात्वरूप कह सकें वह सम्यग्मिध्याव प्रकृति है। यह मिश्र परिणाम भी. वैभाविक भाव ही हैं।