Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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त०रा०
भाषा
आत्माका नारकी होना नारक नामका औदयिकभाव है। तिर्यग्गति नामक नामकर्मके उदयसे आत्माका तिथेच होना तिर्यक् नामका औदयिक भाव है। मनुष्यगति नामक नामकर्म के उदयसे आत्माका मनुष्य होना मनुष्य नामका औदायकभाव है और देवगति नामक नाम कर्मके उदयसे आत्माका देव हो जाना
देव नामका औदयिकभाव है। इसप्रकार गतिसामान्य नामकर्मके उदयसे आत्माका भिन्न भिन्न देव | |४|| आदि गतिस्वरूप परिणत होना सामान्यगति नामका औदयिकभाव कहा जाता है।
चारित्रमोहोदयात्कलुषभावः कषाय औदायिकः॥२॥ __ आत्माको जो कषे विपरिणमावे उसका नाम कषाय है । कषायवेदनीय नामक चारित्र मोहनीय है। कर्मके उदयसे आत्माका जो क्रोध आदि कलुषतारूप परिमन होता है वह कषाय नामका औदयिक
भाव है। उसके क्रोध मान माया लोभ ये चार भेद हैं और उनके अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान और संज्वलन ये भेद हैं।
वेदोदयापादितोऽभिलाषविशेषो लिंगं ॥३॥ स्त्री आदि वेदोंके उदयसे स्त्रीको पुरुषके साथ, पुरुषको स्त्रीके साथ और नपुंसकको स्त्री पुरुष दोनों के ६ साथ रमण करनेकी जो इच्छा हो जाना उप्तका नाम, लिंग है । वह लिंग दो प्रकारका है एक द्रव्यलिंग | दूसरा भावलिंग। नामकर्मके उदयसे होनेवाले वाह्य रचना विशेषका नाम द्रव्यलिंग है । वह पुद्गल
का परिणाम है और यहाँपर आत्माके परिणामोंका प्रकरण चल रहा है इसलिये सूत्रमें जो लिंग शब्दका | उल्लेख किया गया है उसका अर्थ द्रव्यलिंग नहीं लिया जा सकता किंतु आत्माका परिणाम स्वरूप भावलिंग है। वह भावलिंग स्त्री पुरुष और नपुंसक तीनोंकी आपसमें रमण करनेकी इच्छारूप है और
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