Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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* उदयसे शब्द आदिका ज्ञान नहीं होता इसलिये उनका वह शब्द आदिका अज्ञान औदयिकभाव है।
शुक और सारिका आदि पक्षी जो कि स्पष्ट रूपसे अक्षरोंका उच्चारण कर सकते हैं उन्हें छोडकर न तिर्यंचोंमें तथा जो स्पष्टरूपसे अक्षरोंका उच्चारण नहीं कर सकते ऐसे कुछ मनुष्योंमें सर्वघाति स्पर्धक स्वरूप अक्षर श्रुतावरण कर्मके उदयसे अक्षरात्मक श्रुतकी रचना नहीं होती इसलिये उनका अक्षर ४ श्रुतका अज्ञान औदयिकभाव है।
तथा असंज्ञित्व भाव भी औदयिक भाव है । यद्यपि औदयिक भावके भेदोंकी गणना करते हूँ है समय उसका उल्लेख नहीं किया गया है तथापि अज्ञानभावके अंदर ही उसका अंतर्भाव है क्योंकि सर्व है है घाति स्पर्धकस्वरूप नो इंद्रियावरण कर्मके उदय रहनेपर कौन पदार्थ हितकारी है और कौन अहित-है।
कारी है इसप्रकार परीक्षा करनेकी शक्तिका न रखना ही असंज्ञित्व है और वह अज्ञान स्वरूप ही है । इसलिये यहां असंज्ञित्व नामक औदयिक भावकी पृथक् उल्लेख करनेकी आवश्यकता नहीं।
इसीतरह सर्वघाति स्पर्धकस्वरूप अवधिज्ञानावरण कर्मके उदय रहनेपर जो अवधिज्ञानके विषय ६ भूत पदार्थोंका न जानना रूप अज्ञान है वह औदायक भाव है। सर्वघाति स्पर्धकरूप मनःपर्यय ज्ञानाहूँ वरण कर्मके उदय रहनेपर मनःपर्ययज्ञानके विषयभूत पदार्थों का अज्ञान भी औदयिक भाव है । तथा
सर्वघाती स्पर्धकस्वरूप केवल ज्ञानावरणकर्मके उदय रहनेपर केवलज्ञानके विषयभूत पदार्थोंका अज्ञान हूँ भी औदयिक भाव है।
चारित्रमोहोदयादनिवृत्तिपरिणामोऽसंयतः॥६॥ सर्वघाति स्पर्धकस्वरूप चारित्र मोहनीयकर्मके उदयसे असंयत नामका औदयिक भाव होता है
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