Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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त०रा०॥
अध्याय
भाषा
५२७
| प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है किन्हीके धर्मके श्रवणसे वा भगवान जिनेंद्रकी शांतिरसमय मुद्रा ॥ || देखनेसे वह प्राप्त होता है।
मनुष्योंमें भी पर्याप्तक मनुष्य ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं अपर्याप्तक नहीं तथा M पर्याप्तकोंमें आठ वर्षके वाद ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है पहिले नहीं होता। यह ढाई द्वीपनिवासी ||| सभी मनुष्यों के लिये नियम है । उनमें बहुतसे मनुष्योंके पूर्वजन्मके स्मरणसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी | || प्राप्ति होती है । बहुतोंके धर्मके श्रवणसे वा भगवान जिनेंद्रकी प्रतिमाके दर्शनसे उसकी प्राप्ति होती है।
देवोंमें भी पर्याप्तक ही देव प्रथमोपशम सम्यक्त्वका लाभ कर सकते हैं अपर्याप्तक नहीं। पर्याप्तकोंमें भी अंतर्मुहूर्तके बाद ही कर सकते हैं पहिले नहीं । यह उपरिम ग्रैवेयक पर्यंत जितने भी देव हैं सबके लिये नियम है । उनमें भवनवासी निकायके देवोंको आदि लेकर वारहवें स्वर्ग सहस्रार पर्यंतके देवों के पूर्वजन्मका स्मरण धर्मका श्रवण जिनेंद्रकी महिमाका अवलोकन और देवोंकी ऋद्धियों का निरीक्षण इन चार कारणों से प्रथमोपशम सम्यक्त्वका लाभ हो सकता है । आनत प्राणत आरण और अच्युत इन | चार स्वर्गों के निवासी देवोंके देवोंकी ऋद्धियोंके निरीक्षणके सिवाय उक्त तीन कारणों से प्रथमोपशम ३|| सम्यक्त्वका लाभ होता है। नव अवेयकोंमें पूर्वजन्मका स्मरण और धर्मश्रवण इन दो कारणोंसे सम्य६|| ग्दर्शन होता है । इनसे ऊपरके विमानों के निवासी अर्थात् नव अनुदिश और पंच पचोचरविमानवासी का देव नियमसे सम्यग्दृष्टी होते हैं। वहांपर सम्यग्दर्शनकी उत्पचिके लिये किसी भी कारणकी आवश्यकता नहीं होती।
अष्टाविंशतिमोहविकल्पोपशमादौपशमिकं चारित्रं ॥३॥
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