Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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मध्याव
अनंतप्राणिगणानुगहकर सकलदानांतरायक्षयादभयदानं ॥२॥ ०रा० दानांतराय लाभांतराय भोगांतराय उपभोगांतराय और वीयांतरायके भेदसे अंतरायकर्म पांच भाषा
प्रकारका माना है। उनमें दानांतराय कर्मके सर्वथा नाश होजानेपर प्रगट होनेवाला और भूत भविष्यत् ५२९|| वर्तमान समस्त प्राणियोंका उपकार करनेवाला अभयदान क्षायिकदान है।
विशेष-यद्यपि आहार औषध शास्त्र और अभयदानके भेदसे दान चार प्रकारका है परंतु अभय|| दानके सिवाय तीन दान क्षायोपशमिक हैं, क्षायिक नहीं । अभयदान ही क्षायिकदान है यही केवः |
लियोंके हो सकता है इसलिये क्षायिक भावोंमें दान शब्दके उल्लेखसे अन्य प्रकारके दानोंका ग्रहण न | छ| कर अभयदानको ही क्षायिक दान कहा है।
अशेषलाभांतरायनिरासात् परमशुभपुद्गलानामादानं लाभः॥३॥ ___लाभांतराय कर्मके सर्वथा नष्ट हो जाने पर क्षायिक लाभ प्रगट होता है और कवलाहारके त्यागी P केवली भगवान के शरीरको ज्योंका त्यों शक्तिमान रखनेवाले, केवलीके सिवाय अन्य मनुष्यों में न होनेके |
कारण असाधारण परमशुभ सूक्ष्म और अनंत पुद्गलोंका जो प्रति समय केवली भगवानके शरीरके । 13 साथ संबंध करना है उसीका नाम क्षायिक लाभ है।
____औदारिक शरीरकी स्थिति, विना कवलाहारके किंचिन्यून पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण मानी है वह इसी || क्षायिक लाभके आधीन है इसलिये जो मनुष्य यह शंका करते हैं कि केवलियोंके कवलहार माने विना है किंचिन्यून पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण स्थिति कैसे रह सकती है ? वह उनका कहना निर्मूल है।
कृत्स्नभोगांतरायतिरोभावात्परमप्रकृष्टो भोगः॥४॥
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