Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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बरा० माषा
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प्रगट हो जाता है उससमय मतिज्ञानके होनेकी योग्यता नरहनेसे भाव नेत्र स्वरूप रूपोपलब्धि स्वभावका अभाव हो जाता है किंतु वहां नेत्रके रूपोपलब्धि स्वभावके नष्ट हो जाने पर भी द्रव्य नेत्रका अवस्थान ही रहता है अभाव नहीं होता इस रीतिसे इन दोनों स्थानों पर जिसप्रकार रूपोपलब्धि रूप स्वभावके हूँ। | नष्ट हो जाने पर भी नेत्र इंद्रियका अभाव नहीं होता उसीप्रकार जिन औदयिक आदि भावोंकी
उत्पत्ति कर्मजनित है उनका भले ही नाश हो जाय परंतु क्षायिक भावोंका कभी भी नाश नहीं होता किंतु उनकी प्रगटतासे और भी आत्मामें विशेषता उत्पन्न हो जाती है इस रीतिसे आत्माके क्षायिक भावोंके विद्यमान रहते जब उसका नाश बाधित है तब स्वभावके परित्याग वा अपरित्यागसे आत्माके
नाशकी शंका निर्मूल है ॥१॥ की जिन औपशमिक आदि भावोंका ऊपर नामोल्लेख किया गया है वे अखण्ड अखण्ड पदार्थ हैं कि || उनके भेद भी हैं ? यदि कहा जायगा उनके भेद हैं तब वतलाना चाहिये किसके कितने भेद हैं ? इस. लिये सूत्रकार क्रमसे उनके भेदोंका उल्लेख करते हैं । सबसे पहिले औपशमिक आदि भावोंके भेदोंकी संख्या बतलाते हैं--
हिनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमं ॥२॥ अर्थ-दो नौ अठारह इकोस और तीन ये उन पांचों भावोंके क्रमसे भेद हैं । अर्थात् औपशमिकके दो भेद हैं, क्षायिकके नौ, मिश्रके अठारह, औदयिक इक्कीस और पारिणामिकके तीन भेद हैं। सूत्रके | समास आदि पर वार्तिककार विचार करते हैं
यादीनां कृतद्वंद्वानां भेदशब्देन वृत्तिः॥१॥
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