Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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मध्याय
०रा० भाषा
__ स्वभावपरित्यागात्यागयोः शून्यतानिर्मोक्षप्रसंग इति चेन्नादेशवचनात् ॥ २३ ॥
औपशमिक आदि जो आत्माके स्वभाव बतलाये हैं उन्हें आत्मा छोड सकता है या नहीं। यदि * यह कहा जायगा कि वे आत्मासे जुदे हो सकते हैं तब जिसप्रकार उष्णता अग्निका स्वभाव है यदि | वह अग्निसे जुदा हो जायगा तो अग्निका अभाव होगा उसीप्रकार औपशमिक आदि भी जीवके | निज भाव हैं यदि वे जीवसे जुदे हो जायगे तो-जीवका भी अभाव हो जायगा। जीवका ही क्यों यदि
सब पदार्थों के स्वभाव उनसे भिन्न हो जायगे तो जगत् ही शून्य हो जायगा । कदाचित् यह कहा || जायगा कि वे जीवसे जुदे नहीं होते तो फिर औपशमिक आदि भावोंके अंतर्गत क्रोध आदि भी भाव | || हैं इसलिये क्रोधादिस्वरूप भी सदा आत्मा मानना पडेगा फिर इसकी मोक्ष न हो सकेगी क्योंकि है। क्रोध आदि समस्त कर्मोंके नाशको मोक्ष माना है । सो ठीक नहीं । द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा जीव है अनादि पारिणामिक चैतन्य स्वरूप है इसलिये उस नयकी अपेक्षा तो औपशमिक आदि भाव उससे * भिन्न हो नहीं सकते और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा वह आदिमान-विनाशीक औदयिक आदि पर्यायस्वरूप है इसलिये इस नयकी अपेक्षा औपशमिक आदि भाव उससे जुदे हो सकते हैं । इसरीतिसे
जीव कथंचित् (द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा) स्वस्वभावका अपरित्यागी है । कथंचित (पर्यायार्थिक | 18 नयकी अपेक्षा) त्यागी है । क्रमसे दोनों नयोंकी अपेक्षा करनेपर कथंचित् अत्यागी और त्यागी है।
| एक साथ दोनों नयोंकी अपेक्षा करनेपर कथंचित अवक्तव्य है इत्यादि सातोभंग समझ लेना चाहिये। है जो यह एकांत मानता है कि पदार्थका स्वभाव उससे सर्वथा जुदा हो जाता है अथवा वह उससे कभी
भी जुदा नहीं होता उसके मतमें उपर्युक्त दोष लागू हो सकते हैं परंतु जैनसिद्धांत तो अनेकांत. वादकी
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